भारतीय परीक्षा – प्रणाली में आमूल – चूल परिवर्तन की वर्तमान प्रासंगिकता

भारतीय परीक्षा – प्रणाली में आमूल – चूल परिवर्तन की वर्तमान प्रासंगिकता

( यह लेख  ‘ द हिन्दू ’,  द इकॉनोमी टाइम्स ऑफ़ इंडिया ’  और ‘ पीआईबी ’ के सम्मिलित संपादकीय के संक्षिप्त सारांश से संबंधित है। इसमें योजना IAS टीम के सुझाव भी शामिल हैं। यह लेख यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के विशेषकर ‘ भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास और मानव संसाधन , सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप, वृद्धि एवं विकास ’ खंड से संबंधित है। यह लेख ‘ दैनिक करेंट अफेयर्स ’ के अंतर्गत ‘भारतीय परीक्षा – प्रणाली में आमूल – चूल परिवर्तन की वर्तमान प्रासंगिकता ’ से संबंधित है।)

सामान्य अध्ययन : भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास और मानव संसाधन , सरकारी नीतियाँ और हस्तक्षेप, वृद्धि एवं विकास।

चर्चा में क्यों ?

  • भारत के समाचार पत्रों और मीडिया कवरेजों में हर वर्ष या हर परीक्षा सीजन में हर स्तर के परीक्षा में होने वाले  कदाचार , नक़ल और परीक्षा में घोटाले जैसी खबरे दिखाई और सुनाई पड़ती है। जिससे भारत में होने वाली परीक्षा प्रणाली की विश्वसनीयता और परीक्षा/ स्कूल बोर्डों या विश्विद्यालय द्वारा जारी किए जाने वाले प्रमाणपत्रों के मानक पर सवाल उठता रहता है। किसी भी शैक्षणिक संस्थानों में परीक्षा प्रणाली की विश्वसनीयता की कमी वहां के शैक्षिक मानकों को प्रभावित करती है क्योंकि सीखना प्रस्तावित परीक्षा प्रणाली द्वारा निर्धारित होता है। एक छात्र को किसी भी प्रकार की परीक्षा का सामना करने के लिए तैयार करना ही शिक्षा और शिक्षण का प्रमुख उद्देश्य होना चाहिए। 
  • भारत में 1,100 से अधिक विश्वविद्यालयों, 700 से अधिक स्वायत्त कॉलेजों सहित 50,000 संबद्ध कॉलेजों और 40.15 करोड़ छात्रों के कुल नामांकन के साथ, भारत में मूल्यांकन के विविध तरीकों के साथ कई उच्च शिक्षा परीक्षा प्रणालियाँ मौजूद  हैं। स्कूली शिक्षा के माध्यमिक और उच्चतर माध्यमिक स्तरों के लिए भारत में लगभग 60 स्कूल बोर्ड भी हैं, जो हर साल 15करोड़ से अधिक छात्रों को प्रमाण – पत्र प्रदान  करते हैं। किसी भी स्तर की परीक्षा में गोपनीयता और मानकीकरण अच्छे परीक्षा बोर्डों की पहचान मानी जाती है। उचित – जांच प्रणाली और सतत मूल्यांकन के बीच संतुलन तथा लेखा – परीक्षण के बिना हुए परीक्षा गोपनीयता परीक्षा घोटालों को जन्म देती है। किसी भी स्तर की परीक्षा में एकरूपता न केवल मानकीकरण मूल्यांकन और पाठ्यक्रम में होने वाले नित नए प्रयोगों को समाप्त कर देता है। बल्कि शिक्षण और मूल्यांकन में पारदर्शिता से ही मूल्यांकन की विश्वसनीयता और शिक्षा का स्तर सुनिश्चित किया जा सकता है।

वर्तमान परीक्षा – प्रणाली में सुधार की आवश्यकता क्यों है ? 

  • भारत में वर्ष 2030 तक विश्व की सर्वाधिक युवा – आबादी होगी।  अतः जब तक ये युवा आबादी कार्यबल में शामिल होने के लिए प्रशिक्षित और कौशलयुक्त नहीं होंगें तब तक भारत की यह विशाल युवा आबादी भारत के लिए वरदान सिद्ध नहीं होंगें । अतः ऐसी स्थिति में वर्तमान समय की आवश्यकताओं के अनुसार  कौशलयुक्त और  गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करना इस  इसमें प्रमुख भूमिका निभाएगी।
  • भारत की वर्तमान शिक्षा की स्थिति उपयुक्त अवसंरचना की कमी, छात्र-शिक्षक अनुपात की विषमता और  शिक्षा पर निम्न सरकारी व्यय (भारत की जीडीपी के 3.5% से भी कम) जैसी प्रमुख चुनौतियों का सामना कर रही है।
  • अतः यह वर्तमान समय की जरूरत है कि भारतीय शिक्षा प्रणाली को वैश्विक मानकों के अनुरूप बनाया जाए और ऐसा आधुनिक शिक्षण – प्रणाली दृष्टिकोण अपनाया जाए जो वर्त्तमान समय की जरूरतों के प्रति न केवल प्रासंगिक हो, बल्कि यह वर्तमान समय की जरूरतों के प्रति उत्तरदायी हो। वर्तमान समय में भारत में ऐसी परीक्षा – प्रणाली विकसित हो जो राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ( National Education Policy- NEP 2020 ) के मुख्य उद्देश्यों को भी साकार करने की दिशा में अग्रसर हो।

परीक्षा सुधार आवश्यकता – समाज की आवश्यकताओं और विचारधाराओं में जैसे – जैसे परिवर्तन होता है, तत्कालीन शिक्षा – व्यवस्था व उसका स्वरूप भी तत्कालीन समय की जरूरतों के अनुसार परिवर्तित होता रहता है। जैसे – जैसे शिक्षा का उद्देश्य रोजगारपरक हुआ , तत्कालीन समय की जरूरतों के अनुसार देश के शिक्षाविदों द्वारा पाठ्यक्रम में परिवर्तन होते गए और परीक्षा मूल्यांकन की प्रणालियों में भी परिवर्तन होता गया।

किसी भी बालक या युवा का सर्वागीण विकास करना शिक्षा का मुख्य उद्देश्य तो होता है, किन्तु इस विकास का मूल्यांकन करना आसान कार्य नहीं होता है। भारत में मौजूदा परीक्षा – प्रणाली परीक्षा में केवल  कुछ अंक प्राप्त कर लेने  तथा कोई ग्रेड प्राप्त कर लेना या कुछ गिने-चुने प्रश्नों के उत्तर रटंत विद्या से दे देने से भी शिक्षा और मौजूदा परीक्षा – प्रणाली के वास्तविक उद्देश्यों को पूरा नहीं किया जा सकता है, चूंकि किसी भी व्यक्ति या संस्था का मूल्यांकन सतत व निरंतर चलने वाली प्रक्रिया होती है। अतः यह वर्तमान समय की जरूरत है कि भारत में परीक्षा – प्रणाली के मूल्यांकन – प्रक्रिया में निरंतर सुधार होता रहे जिससे यह वर्तमान समय की जरूरतों को पूरा कर सके। भारत में मौजूद वर्तमान परीक्षा – प्रणाली में आमूल – चूल परिवर्तन  की आवश्यकता निम्नलिखित कारणों से महत्वपूर्ण है : – 

  • तत्कालीन समाज की बदलती जरूरतों को ध्यान में रखते हुए ।
  • बाजार और समाज के बीच उचित सामंजस्य स्थापित करने के लिए।
  • पाठ्यक्रम को तत्कालीन समय की प्रासंगिकता और उपलब्ध मानव बल को उचित माध्यम से उपयोग करने  के लिए।
  • विशिष्ट योग्यता व प्रतिभा के समग्र विकास के लिए।
  • कौशलयुक्त वास्तविक ज्ञान और नियोक्ता की जरूरतों के बीच के अंतर्संबंधों के मूल्यांकन के लिए।
  • वर्त्तमान में मौजूद  शिक्षण – प्रणालियों और समाज में संबंध स्थापित करने के लिए।

 तत्कालीन समाज की बदलती जरूरतों को ध्यान में रखते हुए : 

  • समाज की बदलती आवश्यकताओं, विचारधाराओं तथा शिक्षा में आपसी सामंजस्य स्थापित करने के लिए परीक्षा – प्रणाली में सुधार की अत्यंत आवश्यकता है। पिछले कई दशकों से छात्रों का मूल्यांकन अंक प्राप्त करने वाली पद्धति के द्वारा ही किया जाता था। फलत : छात्र/ छात्रा केवल किताबी ज्ञान को रट कर केवल अंक प्राप्त करने होड़ में लगे रहते थे। इस परीक्षा – प्रणाली मूल्यांकन पद्धति से इस कम अंक प्राप्त करने वाले छात्र / छात्राएं लोकलाज की डर से आत्महत्या जैसे अनुचित और अमानवीय कृत्य तक कर बैठते थे।
  • ऐसी अनुचित और अमानवीय कृत्य का स्वरूप धीरे-धीरे बढ़ने लगा और तब परीक्षा भी वर्ष के अंत में ली जाने लगी जिनमें छात्र / छात्राओं को केवल कुछ प्रश्नों का उत्तर ही लिखने के लिए बोला जाता था तथा इन्ही प्रश्नों के आधार पर उनका मूल्यांकन कर लिया जाता था। लेकिन कुछ अंकों के आधार पर ही किसी का भी मूल्यांकन नहीं किया जा सकता है, क्योंकि शिक्षा का उद्देश्य छात्र / छात्राओं का सर्वांगीण विकास करना है एवं छात्र / छात्राओं  के अंदर निहित गुणों का विकास करना भी होता है। इसीलिए वर्तमान समय में इन उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए वर्तमान परीक्षा – प्रणाली में सुधार की अत्यंत आवश्यकता है।

बाजार और समाज के बीच उचित सामंजस्य स्थापित करने के लिए : 

  • वर्तमान समय में छात्रों को जो कक्षा में सिखाया जाता है तथा जिस प्रकार से सिखाया जाता है उसका उसकी परीक्षा प्रणाली के मूल्यांकन से संबंध कम होता जा रहा है। वर्तमान समय में शिक्षण अधिगम प्रक्रिया एवं परीक्षा एवं परीक्षा – मूल्यांकन प्रणाली में उचित एवं आपसी सामंजस्य नहीं है। इस तालमेल को ठीक से बनाए रखने के लिए वर्तमान  परीक्षा – प्रणाली में सुधार करना अत्यंत आवश्यक है।

पाठ्यक्रम को तत्कालीन समय की प्रासंगिकता और उपलब्ध मानव बल को उचित माध्यम से उपयोग करने  के लिए : 

  • किसी भी समाज या राष्ट्र में समय सापेक्ष पाठ्यक्रम भी परिवर्तित होते रहे हैं। पाठ्यक्रम में अब विभिन्न क्रियाओं और गतिविधियों को भी स्थान दिया गया है। इनका सही से मूल्यांकन करने के लिए तथा छात्रों के द्वारा अर्जित ज्ञान को जांचने के लिए मौजूदा परीक्षा –  प्रणाली एवं मूल्यांकन – प्रणाली में सुधार करने की अत्यंत आवश्यकता है।

विशिष्ट योग्यता व प्रतिभा के समग्र विकास के लिए : 

  • छात्रों के अंदर सन्निहित गुणों तथा प्रतिभा के विकास के लिए परीक्षा में सुधार करना आवश्यक है। शिक्षा के द्वारा बालक के अंदर नहीं सभी गुणों को बाहर लाया जा सकता है और शिक्षा के उद्देश्यों की प्राप्ति हुई है या नहीं तथा उन उद्देश्यों को किस प्रकार प्राप्त किया जाए इसकी जांच परीक्षा व मूल्यांकन द्वारा की जा सकती है।
  • किसी भी समाज, परिवार या विद्यालय में कोई भी दो बालक एक समान प्रवृत्ति या रुचि के नहीं होते हैं और प्रत्येक बालक के अंदर कोई ना कोई विशिष्ट योग्यता या प्रतिभा होती है। शिक्षण के द्वारा उस छिपी हुई प्रतिभा का भी विकास किया जाता है। इस प्रतिभा के विकास का मूल्यांकन परीक्षा द्वारा किया जाता है। प्रतिभा के विकास के लिए भी मौजूदा परीक्षा – प्रणाली में मूल्यांकन – प्रक्रिया में सुधार करना अत्यंत आवश्यक है।

कौशलयुक्त वास्तविक ज्ञान और नियोक्ता की जरूरतों के बीच के अंतर्संबंधों के मूल्यांकन के लिए : 

  • कौशलयुक्त वास्तविक ज्ञान और नियोक्ता की जरूरतों के बीच के अंतर्संबंधों के मूल्यांकन के लिए भी वर्तमान परीक्षा – प्रणाली के मूल्यांकन पद्धति में आमूल – चूल परिवर्तन की जरूरत है। छात्रों द्वारा विभिन्न क्रियाकलापों एवं गतिविधियों में जो भी ज्ञान प्राप्त किया जाता है उसकी जांच मूल्यांकन द्वारा की जाती है और मूल्यांकन की विधियां अलग-अलग होती हैं। जैसे साक्षात्कार, प्रश्नावली, लिखित परीक्षा, मौखिक परीक्षाओं में भी वस्तुनिष्ठ तथा निबंधात्मक प्रश्नों का समावेश किया जाता है। इस प्रकार की परीक्षाओं से छात्र के वास्तविक ज्ञान का मूल्यांकन किया जाता है। 

वर्त्तमान में मौजूद  शिक्षण – प्रणालियों और समाज में संबंध स्थापित करने के लिए : 

  • वर्त्तमान में मौजूद  शिक्षण – प्रणालियों और समाज में संबंध स्थापित करने के लिए भी परीक्षा – प्रणाली में निहित मूल्यांकन पद्धति में आमूल – चूल परिवर्तन की जरूरत है क्योंकि कोई भी छात्र/ छात्रा अपने परिवार या अपने  समाज से निकलकर ही विद्यालय में प्रवेश करता है। वस्तुतः जिस प्रकार शिक्षा समाज का निर्माण करती है, ठीक उसी प्रकार समाज शिक्षा का निर्माण करता है। समाज की आवश्यकताओं एवं विचारधाराओं के परिवर्तित होते ही शिक्षा के स्वरूप में परिवर्तन हो जाता है। परीक्षा का मूल्यांकन भी इसी का एक भाग है। इसलिए शिक्षा व समाज में उचित संबंध स्थापित करने के लिए परीक्षा का मूल्यांकन सुधार वर्तमान समय की अत्यंत आवश्यकता है।
  • धीरे-धीरे छात्र केवल कुछ चुने हुए प्रश्नों का उत्तर देने लगे थे। इससे छात्र के अर्जित ज्ञान का संपूर्ण मूल्यांकन नहीं किया जा सकता था। धीरे-धीरे परीक्षा के इस स्वरूप में परिवर्तन किया गया तथा लिखित परीक्षाओं में वस्तुनिष्ठ प्रश्नों को भी शामिल किया जाने लगा, जिसमें छात्रों के लिखित, मौखिक व प्रयोगात्मक कार्य की भी जांच की जाती थी। इससे छात्र की वर्ष भर के ज्ञान का मूल्यांकन किया जाता था। पाठ्यचर्या में विभिन्न विषयों को शामिल किए जाने से इन परीक्षाओं की गुणवत्ता में भी कमी आने लगी तथा यह विचार किया जाने लगा कि छात्रों की वर्ष भर की अर्जित उपलब्धियों को भी परीक्षाफल में स्थान दिया जाना चाहिए। इसीलिए वर्ष भर के ज्ञान का मूल्यांकन करने के लिए ग्रेडिंग प्रणाली सेमेस्टर प्रणाली पर विचार करते हुए इसे भारत की परीक्षा – प्रणाली में सम्मिलित कर लिया गया। इन तमाम बदलावों  के बावजूद भी भारत में मौजूदा परीक्षा – मूल्यांकन प्रणाली में कई दोष है , जिसे वर्तमान समय की जरूरतों को देखते इसमें आमूल – चूल परिवर्तन की अत्यंत आवश्यकता है , जिससे एक समावेशी समाज – निमार्ण की दिशा में आगे बढ़ा जाए और वर्तमान समय के अनुकूल परीक्षा मूल्यांकन प्रणाली विकसित हो सके और जो अपनी वर्तमान प्रासंगिकता को वर्तमान समय की जरूरतों के अनुसार बरक़रार रख सके।

भारत में अब तक हुए भारतीय शिक्षा – प्रणाली की विकास – यात्रा : 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1968

  • स्वतंत्र भारत में शिक्षा पर यह पहली नीति कोठारी आयोग (1964-1966) की सिफारिशों पर आधारित थी।
  • शिक्षा को राष्ट्रीय महत्त्व का विषय घोषित किया गया।
  • 14 वर्ष की आयु तक के सभी बच्चों के लिये अनिवार्य शिक्षा का लक्ष्य और शिक्षकों का बेहतर प्रशिक्षण और योग्यता पर फोकस।
  • नीति ने प्राचीन संस्कृत भाषा के शिक्षण को भी प्रोत्साहित किया, जिसे भारत की संस्कृति और विरासत का एक अनिवार्य हिस्सा माना जाता था।
  • शिक्षा पर केन्द्रीय बजट का 6 प्रतिशत व्यय करने का लक्ष्य रखा।
  • माध्यमिक स्तर पर ‘त्रिभाषा सूत्र’ लागू करने का आह्वान किया गया।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986

  • इस नीति का उद्देश्य असमानताओं को दूर करने विशेष रूप से भारतीय महिलाओं, अनुसूचित जनजातियों और अनुसूचित जाति समुदायों के लिये शैक्षिक अवसर की बराबरी करने पर विशेष ज़ोर देना था।
  • इस नीति ने प्राथमिक स्कूलों को बेहतर बनाने के लिये “ऑपरेशन ब्लैकबोर्ड” लॉन्च किया।
  • इस नीति ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के साथ ‘ओपन यूनिवर्सिटी’ प्रणाली का विस्तार किया।
  • ग्रामीण भारत में जमीनी स्तर पर आर्थिक और सामाजिक विकास को बढ़ावा देने के लिए महात्मा गांधी के दर्शन पर आधारित ग्रामीण विश्वविद्यालय मॉडल के निर्माण के लिए  नीति का आह्वान किया गया।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति में संशोधन, 1992

  • राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 में संशोधन का उद्देश्य देश में व्यावसायिक और तकनीकी कार्यक्रमों में प्रवेश के लिये अखिल भारतीय आधार पर एक आम प्रवेश परीक्षा आयोजित करना था।
  • इंजीनियरिंग और आर्किटेक्चर कार्यक्रमों में प्रवेश के लिये सरकार ने राष्ट्रीय स्तर पर संयुक्त प्रवेश परीक्षा (Joint Entrance Examination-JEE) और अखिल भारतीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा (All India Engineering Entrance Examination-AIEEE) तथा राज्य स्तर के संस्थानों के लिये राज्य स्तरीय इंजीनियरिंग प्रवेश परीक्षा (SLEEE) निर्धारित की।
  • इसने प्रवेश परीक्षाओं की बहुलता के कारण छात्रों और उनके अभिभावकों पर शारीरिक, मानसिक और वित्तीय बोझ को कम करने की समस्याओं को हल किया।

शिक्षा नीति में परिवर्तन की आवश्यकता क्यों ?

  • ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु बदलते वैश्विक परिदृश्य में  मौजूदा शिक्षा प्रणाली में परिवर्तन की आवश्यकता थी।
  • भारत में वर्तमान समय की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए नवाचार और अनुसंधान को बढ़ावा देने के लिए और शिक्षा में गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए ,भारत को एक  नई शिक्षा नीति की आवश्यकता थी ।
  • भारतीय शिक्षण – प्रणाली के वैश्विक मानकों को अपनाने के लिए और भारतीय शिक्षण व्यवस्था की वैश्विक स्तर पर पहुँच सुनिश्चित करने के लिए  भी भारत में शिक्षा नीति में परिवर्तन की आवश्यकता थी।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति ( NEP) –  2020

भारत में शिक्षा की गुणवत्तापूर्ण , उत्तरदायित्व , सभी तक  पहुँच, समतावादी, लोकतांत्रिक और वहनीयता जैसे मुद्दों पर विशेष ध्यान देने के उद्देश्य से  राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 में मौजूदा शिक्षण प्रणाली से इतर आमूल – चूल परिवर्तन किया  गया है। नई शिक्षा नीति के तहत केंद्र व राज्य सरकार के सहयोग से शिक्षा क्षेत्र पर देश की जीडीपी के 6% हिस्से के बराबर निवेश का लक्ष्य रखा गया है। नई शिक्षा नीति के अंतर्गत ही ‘मानव संसाधन विकास मंत्रालय’ (Ministry of Human Resource Development- MHRD) का नाम बदल कर ‘शिक्षा मंत्रालय’ (Education Ministry) करने को भी मंज़ूरी दी गई है।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति ( NEP) –  2020 के प्रमुख बिंदु : 

प्रारंभिक शिक्षा से संबंधित प्रावधान

3 वर्ष से 8 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये शैक्षिक पाठ्यक्रम का दो समूहों में विभाजन-

 

    1. 3 वर्ष से 6 वर्ष की आयु के बच्चों के लिये आँगनवाड़ी/बालवाटिका/प्री-स्कूल (Pre-School) के माध्यम से मुफ्त, सुरक्षित और गुणवत्तापूर्ण प्रारंभिक बाल्यावस्था देखभाल और शिक्षा ’ (Early Childhood Care and Education- ECCE) की उपलब्धता सुनिश्चित करना।
    2. 6 वर्ष से 8 वर्ष तक के बच्चों को प्राथमिक विद्यालयों में कक्षा 1 और 2 में शिक्षा प्रदान की जाएगी।
  • प्रारंभिक शिक्षा को बहुस्तरीय खेल और गतिविधि आधारित बनाने को प्राथमिकता दी जाएगी।
  • NEP में MHRD द्वारा बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान पर एक राष्ट्रीय मिशन’ (National Mission on Foundational Literacy and Numeracy) की स्थापना की मांग की गई है।
  • राज्य सरकारों द्वारा र्ष 2025 तक प्राथमिक विद्यालयों में कक्षा-3 तक के सभी बच्चों में बुनियादी साक्षरता और संख्यात्मक ज्ञान प्राप्त करने हेतु इस मिशन के क्रियान्वयन की योजना तैयार की जाएगी।

भाषायी विविधता को संरक्षण प्रदान करना

  • NEP-2020 में कक्षा-5 तक की शिक्षा में मातृभाषा/ स्थानीय या क्षेत्रीय भाषा को अध्यापन के माध्यम के रूप में अपनाने पर बल दिया गया है, साथ ही इस नीति में मातृभाषा को कक्षा-8 और आगे की शिक्षा के लिये प्राथमिकता देने का सुझाव दिया गया है।
  • स्कूली और उच्च शिक्षा में छात्रों के लिये संस्कृत और अन्य प्राचीन भारतीय भाषाओं का विकल्प उपलब्ध होगा परंतु किसी भी छात्र पर भाषा के चुनाव की कोई बाध्यता नहीं होगी।

पाठ्यक्रम और मूल्यांकन संबंधी सुधार: 

  • इस नीति में प्रस्तावित सुधारों के अनुसार, कला और विज्ञान, व्यावसायिक तथा शैक्षणिक विषयों एवं पाठ्यक्रम व पाठ्येतर गतिविधियों के बीच बहुत अधिक अंतर नहीं होगा।
  • कक्षा-6 से ही शैक्षिक पाठ्यक्रम में व्यावसायिक शिक्षा को शामिल कर दिया जाएगा और इसमें इंटर्नशिप (Internship) की व्यवस्था भी दी जाएगी।
  • राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद’ (National Council of Educational Research and Training- NCERT) द्वारा ‘ स्कूली शिक्षा के लिए  राष्ट्रीय पाठ्यक्रम रूपरेखा ’ (National Curriculum Framework for School Education) तैयार की जाएगी।
  • छात्रों के समग्र विकास के लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए कक्षा-10 और कक्षा-12 की परीक्षाओं में बदलाव किये जाएंगे। इसमें भविष्य में समेस्टर या बहुविकल्पीय प्रश्न आदि जैसे सुधारों को शामिल किया जा सकता है।
  • छात्रों की प्रगति के मूल्यांकन के लिए मानक-निर्धारक निकाय के रूप मेंपरख’ (PARAKH) नामक एक नए राष्ट्रीय आकलन केंद्र’ (National Assessment Centre) की स्थापना की जाएगी।
  • छात्रों की प्रगति के मूल्यांकन तथा छात्रों को अपने भविष्य से जुड़े निर्णय लेने में सहायता प्रदान करने के लिये ‘ कृत्रिम बुद्धिमत्ता ’ (Artificial Intelligence- AI) आधारित सॉफ्टवेयर का प्रयोग।

शिक्षण व्यवस्था से संबंधित सुधार : 

  • शिक्षकों की नियुक्ति में प्रभावी और पारदर्शी प्रक्रिया का पालन तथा समय-समय पर लिये गए कार्य-प्रदर्शन आकलन के आधार पर पदोन्नति।
  • राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद वर्ष 2022 तक ‘शिक्षकों के लिये राष्ट्रीय व्यावसायिक मानक’ (National Professional Standards for Teachers- NPST) का विकास किया जाएगा।
  • राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा NCERT के परामर्श के आधार पर अध्यापक शिक्षा हेतु राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा’ [National Curriculum Framework for Teacher Education-NCFTE) का विकास किया जाएगा।
  • अध्यापन के लिए  न्यूनतम डिग्री योग्यता 4-वर्षीय एकीकृत बी.एड. डिग्री का होना वर्ष 2030 तक अनिवार्य कर दिया गया है ।

उच्च शिक्षा से संबंधित प्रावधान: 

  • उच्च शिक्षण संस्थानों में NEP-2020 के तहत सकल नामांकन अनुपात’ (Gross Enrolment Ratio) को 26.3% (वर्ष 2018) से बढ़ाकर 50% तक करने का लक्ष्य रखा गया है, इसके साथ ही देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में 3.5 करोड़ नई सीटों को जोड़ा जाएगा।
  • NEP-2020 के तहत स्नातक पाठ्यक्रम में मल्टीपल एंट्री एंड एक्ज़िट व्यवस्था को अपनाया गया है, इसके तहत 3 या 4 वर्ष के स्नातक कार्यक्रम में छात्र कई स्तरों पर पाठ्यक्रम को छोड़ सकेंगे और उन्हें उसी के अनुरूप डिग्री या प्रमाण-पत्र प्रदान किया जाएगा (1 वर्ष के बाद प्रमाणपत्र, 2 वर्षों के बाद एडवांस डिप्लोमा, 3 वर्षों के बाद स्नातक की डिग्री तथा 4 वर्षों के बाद शोध के साथ स्नातक की डिग्री )।
  • विभिन्न उच्च शिक्षण संस्थानों से प्राप्त अंकों या क्रेडिट को डिजिटल रूप से सुरक्षित रखने के लिए  एक ‘एकेडमिक बैंक ऑफ क्रेडिट’ (Academic Bank of Credit) बनाया गया , जिससे अलग-अलग संस्थानों में छात्रों के प्रदर्शन के आधार पर उन्हें डिग्री प्रदान की जा सके।
  • एम.फिल. (M. Phil) कार्यक्रम को नई शिक्षा नीति 2020  के तहत समाप्त कर दिया गया है ।

भारत उच्च शिक्षा आयोग :

  • उच्च शिक्षा क्षेत्र के लिए एक एकल निकाय के रूप में भारत उच्च शिक्षा आयोग (Higher Education Commission of India -HECI) का गठन केवल चिकित्सा एवं कानूनी शिक्षा को छोड़कर और अन्य सभी विषयों के लिए  किया जाएगा।
  • भारत उच्च शिक्षा आयोग के कार्यों के प्रदर्शितापूर्ण  और प्रभावी निष्पादन के लिए  निम्नलिखित चार संस्थानों/ निकायों का गठन / निर्धारण किया गया है –
  • विनियमन हेतु- राष्ट्रीय उच्चतर शिक्षा नियामकीय परिषद (National Higher Education Regulatory Council- NHERC)
  • मानक निर्धारण- सामान्य शिक्षा परिषद (General Education Council- GEC)
  • वित पोषण- उच्चतर शिक्षा अनुदान परिषद (Higher Education Grants Council-HEGC)
  • प्रत्यायन- राष्ट्रीय प्रत्यायन परिषद (National Accreditation Council- NAC)

भारत में वैश्विक शिक्षा स्तर  के मानकों के अनुरूप बहुविषयक शिक्षा एवं अनुसंधान विश्वविद्यालय’ (Multidisciplinary Education and Research Universities- MERU) की स्थापना आईआईटी (IIT) और आईआईएम (IIM) की शिक्षा स्तर के समकक्ष ही किया जायेगा ।

संबंधित चुनौतियाँ : 

  • महँगी शिक्षा: नई शिक्षा नीति में विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश का मार्ग प्रशस्त किया गया है, विभिन्न शिक्षाविदों का मानना है कि विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश से भारतीय शिक्षण व्यवस्था महँगी होने की संभावना है। परिणामस्वरूप निम्न वर्ग के छात्रों के लिये उच्च शिक्षा प्राप्त करना चुनौतीपूर्ण हो जाएगा।
  • शिक्षकों का पलायन: विदेशी विश्वविद्यालयों के प्रवेश से भारत के दक्ष शिक्षक भी इन विश्वविद्यालयों में अध्यापन हेतु पलायन कर सकते हैं।
  • शिक्षा का संस्कृतिकरण: दक्षिण भारतीय राज्यों का यह आरोप है कि ‘त्रि-भाषा’ सूत्र से सरकार शिक्षा का संस्कृतिकरण करने का प्रयास कर रही है।
  • संसद की अवहेलना: विपक्ष का आरोप है कि भारतीय शिक्षा की दशा व दिशा तय करने वाली इस नीति को अनुमति देने में संसद की प्रक्रिया का उल्लंघन किया गया। पूर्व में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 भी संसद के द्वारा लागू की गई थी।
  • मानव संसाधन का अभाव: वर्तमान में प्रारंभिक शिक्षा के क्षेत्र में कुशल शिक्षकों का अभाव है, ऐसे में राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 के तहत प्रारंभिक शिक्षा हेतु की गई व्यवस्था के क्रियान्वयन में व्यावहारिक समस्याएँ हैं।

निष्कर्ष / आगे की राह :

  • एक समाज में जिम्मेवार नागरिक और उनमें संवेदनशील चरित्र का निर्माण करने के लिए “  मूल्य आधारित शिक्षा (Value Education) को प्राथमिक, माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा के क्षेत्र में लागू किया जाए, क्योंकि नैतिक और उच्च  मूल्य आधारित गुण शिशुओं द्वारा 5-6 वर्ष की आयु तक ही सीखे जाते हैं, किसी कारणवश बच्चे इस अवधि के दौरान यदि इन गुणों को सीखने में चूक जाते हैं, तो उनके लिए in नैतिक गुणों को जीवन में दोबारा ग्रहण करना बहुत ही मुश्किल होता है।
  • जीवन के शुरुआती हज़ार दिनों में पोषण, स्वास्थ्य और उत्साह में किया गया निवेश भी मज़बूत मस्तिष्क का निर्माण करता है। अतः इसको प्रभावी रूप से प्रारंभिक बचपन के विकास कार्यक्रमों और बुनियादी शिक्षा के माध्यम से आसानी से स्थापित किया जा सकता है।
  • जिसे आधारभूत मानव पूंजी कहा जाता है, में निवेश के माध्यम से भारत अपने नागरिकों या मानव – बलों को नौकरियों, कौशल और बाज़ार संरचनाओं में आने वाले बदलावों के लिए तैयार कर सकता है।
  • निवेश की कमी भविष्य की पीढ़ियों, खासतौर से सबसे गरीब लोगों को गंभीर नुकसान पहुँचाएगी इससे असमानता में और वृद्धि होगी जो पहले से ही मौजूद है
  • यह भारत में सामाजिक – राजनीतिक अस्थिरता की स्थिति को पैदा कर सकता है जब बढ़ती आकांक्षाओं को अवसर के बजाय निराशा प्राप्त हो।
  • वर्तमान में भारत ने मानव पूंजी में निवेश करना शुरू कर दिया है और आने वाले वर्षों में इसके सकारात्मक प्रभाव पड़ने की संभावना है। अधिक प्रतिस्पर्द्धी संघवाद और परिणाम-आधारित वित्त पोषण की दिशा में शिक्षा क्षेत्र में बदलाव से उत्तरदायित्व और सीखने के परिणामों में सुधार की उम्मीद है।
  • अंतर्राष्ट्रीय छात्र आकलन (PISA) प्रत्येक तीन वर्षों में आयोजित होने वाला एक अंतर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण है, जो आर्थिक सहयोग और विकास संगठन (OECD) द्वारा संचालित किया जाता है। PISA में भाग लेने के लिए  भारत का समझौता उसके रणनीतिक परिणामों का ही एक बड़ा कदम है, जो शिक्षा परिणामों के आधार पर वैश्विक सहयोगियों के साथ भारत को अपना रैंक सुधार करने में एवं बेहतर परिणाम हासिल करने में मदद करेगा।
  • काम की बदलती प्रकृति के कारण विश्व बैंक के नीति निर्माताओं और सरकारों को मानव पूंजी के बारे में गंभीर चिंतन करने की भी अत्यंत आवश्यकता है क्योंकि काम की बदलती प्रकृति उन्हें ऐसा सोचने के लिए प्रेरित करती है।
  • भारत में भविष्य की समृद्धि और राष्ट्रीय  मानव पूंजी में वर्तमान और दीर्घकालिक निवेश लोगों को भविष्य की समृद्धि के लिए और राष्ट्रीय रूप से भी प्रभावी निवेश है। 

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प्रारंभिक परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

Q.1. वर्तमान समय में भारत की शिक्षण व्यवस्था में आमूल – चूल परिवर्तन की जरूरतों के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए। 

  1. छात्रों की प्रगति के मूल्यांकन के लिए मानक-निर्धारक निकाय के रूप में ‘परख’ (PARAKH) नामक एक नए ‘राष्ट्रीय आकलन केंद्र’ (National Assessment Centre) की स्थापना की जाएगी।
  2. राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 1986 ने इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय के साथ ‘ओपन यूनिवर्सिटी’ प्रणाली का विस्तार किया।
  3. राष्ट्रीय अध्यापक शिक्षा परिषद द्वारा NCERT के परामर्श के आधार पर ‘अध्यापक शिक्षा हेतु राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा’ का विकास किया जाएगा।
  4. नई शिक्षा नीति के तहत केंद्र व राज्य सरकार के सहयोग से शिक्षा क्षेत्र पर देश की जीडीपी के 16% हिस्से के बराबर निवेश का लक्ष्य रखा गया है।

उपरोक्त कथन / कथनों में कौन सा कथन सही है ? 

(A). केवल 1 , 2 और 3 

(B). केवल 1 और 4 

(C) . केवल 2 , 3 और 4 

(D). केवल 2 और 4 

उत्तर –  (A).

मुख्य परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

  1. 1. भारत की राष्ट्रीय शिक्षा नीति – 2020 के आलोक में यह चर्चा कीजिए कि कौशलयुक्त वास्तविक ज्ञान और नियोक्ता की जरूरतों के बीच के अंतर्संबंधों के मूल्यांकन के लिए भारत में वर्तमान परीक्षा – प्रणाली के मूल्यांकन पद्धति में परिवर्तन करने की जरुरत क्यों है ? तर्कसंगत व्याख्या कीजिए ।

 

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