कृषि श्रमिक आत्महत्या में 18% की वृद्धि

कृषि श्रमिक आत्महत्या में 18% की वृद्धि

 

  • हाल ही में, ‘राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो’ (National Crime Records Bureau – NCRB) ने कृषि श्रमिकों (Agricultural Labourers) द्वारा की गयी आत्महत्याओं पर एक रिपोर्ट जारी की है।

रिपोर्ट के प्रमुख बिंदु:

  • वर्ष 2020 में आत्महत्या से मरने वाले ‘खेतिहर मजदूरों’ / कृषि श्रमिकों की संख्या पिछले वर्ष की तुलना में 18% अधिक थी।
  • कुल मिलाकर, वर्ष 2020 में कृषि क्षेत्र में लगे 10,677 लोगों की आत्महत्या से मृत्यु हुई है।
  • यद्यपि, महामारी के साल में भू-स्वामित्व रखने वाले किसानों की आत्महत्याओं में थोड़ी गिरावट आई है।
  • भूमिहीन खेतिहर मजदूर, जिन्हें“पी.एम किसान” जैसी आय सहायता योजनाओं का लाभ नहीं मिला, उन्हें महामारी के दौरान उच्च स्तर के संकट का सामना करना पड़ रहा है।
  • कृषि क्षेत्र में लगे व्यक्तियों द्वारा आत्महत्याओं के मामले में महाराष्ट्र की स्थिति, 4,006 आत्महत्याओं के साथ, सभी राज्यों की तुलना में सबसे ख़राब है। महाराष्ट्र में कृषि श्रमिकों की आत्महत्याओं में 15% की वृद्धि हुई है।
  • इस मामले में खराब रिकॉर्ड वाले अन्य राज्यों में कर्नाटक (2016), आंध्र प्रदेश (889) और मध्य प्रदेश (735) शामिल हैं।
  • वर्ष 2020 के दौरान कर्नाटक में कृषि श्रमिकों की आत्महत्याओं की संख्या में निराशाजनक रूप से 43 प्रतिशत की वृद्धि देखी गई।

कृषि क्षेत्र के सामने आने वाले मुद्दे:

  • कुछ प्रमुख कृषि उत्पादों के रिकॉर्ड उत्पादन और निर्यात में वृद्धि के बावजूद, भारत का कृषि क्षेत्र कुछ अंतर्निहित चुनौतियों, जैसेकि कम फसल उपज, मानसून पर निर्भरता, वैश्विक बाजारों में निर्यात का कम हिस्सा, कृषि मशीनीकरण में अंतराल, ऋण का बोझ और किसान आत्महत्या आदि का सामना कर रहा है।
  • यह सब चुनौतियाँ, पहले से ही संघर्ष कर रहे कृषि उद्योग पर और भार डालती है, जिससे इसके विकास पर गंभीर असर पड़ता है।

किसानों की आत्महत्या के कारण:

  • किसानों की आत्महत्या के मुख्य कारण क्या हो सकते हैं, इस पर कोई मतैक्य नहीं है, लेकिन अध्ययनों से पता चलता है कि आत्महत्या करने वाले किसान, एक से अधिक कारणों की वजह से मौत को गले लगाते हैं। हालांकि, इसका मुख्य कारण ‘ऋण चुकाने में असमर्थता’ देखा गया है।
  • किसानों की आत्महत्या के मुख्य कारण, दिवालियेपन/ऋणग्रस्तता, परिवारों में समस्याएं, फसल खराब होना, बीमारी और शराब/नशीले पदार्थों का दुरुपयोग आदि माने जाते हैं।
  • कृषि-क्षेत्र में प्रच्छन्न बेरोजगारी की उच्च दर बनी हुई है। भूमि जोत के विखंडन होने से अधिकाँश किसानों के पास कम-आकार के कृषि-योग्य खेत बचे हैं, जिनसे लाभ होने की संभवना काफी कम होती है।
  • ऋण, सिंचाई और प्रौद्योगिकी तक कम पहुंच, उनकी आरामदायक जीवनयापन करने की क्षमता को खराब करती है। देश में हर दसवां किसान भूमिहीन है।
  • किसानों द्वारा खेती के लिए प्रायः किराए की भूमि का उपयोग किया जाता है, लेकिन भूमि-पट्टा तंत्र की अपर्याप्तता के कारण उनके लिए कृषि-उत्पादन बढ़ाना मुश्किल हो जाता है।
  • सबसे ज्यादा आत्महत्याएं, कपास और गन्ना जैसी नकदी फसलों के क्षेत्रों में हुई है। इन फसलों के लिए ऊँची लागत की जरूरत होती है, लेकिन पैदावार एक जुआ (Gambling) की तरह होती है, जोकि ‘निरंतर और अनुकूल उच्च उपज’ के सिद्धांत पर आधारित नहीं है।

आगे की चुनौतियां:

  • भारत में सिंचाई की सुविधा कुल कृषि भूमि के आधे से भी कम क्षेत्र तक ही उपलब्ध है। इस तस्वीर में पिछले एक दशक से बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं हुआ है। हमारे 60% से अधिक किसान, वर्षा की विसंगतियों के लिए अतिसंवेदनशील हैं।
  • वर्षा आधारित खेती की पैदावार, आमतौर पर सिंचित कृषि भूमि के आधे से भी कम होती है।
  • किंतु यह न तो फलोत्पदक है और न ही पर्यावरणीय रूप से संधारणीय है। और इससे खेती की लागत और बढ़ जाती है।
  • हरित क्रांति के दौरान शुरुआती दौर में पैदावार- प्रस्फोट होने के बाद अधिक उपज देने वाली फसलों पर अनुसंधान ठहर गया है, और किसानों को अपनी छोटी जोत भूमि से अधिक पैदावार के लिए पेटेंट बीजों का सहारा लेना पड़ता है।
  • eNAM जैसी पहल, किसानों की उपज को सीधे बाजार के साथ एकीकृत करने में मदद कर रही है, हालांकि, बिचौलियों की भूमिका में कटौती अभी भी काफी पीछे है।
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