29 Apr यौन उत्पीड़न से संबंधित प्राथमिकी (FIR)
यौन उत्पीड़न से संबंधित प्राथमिकी (FIR)
संदर्भ – हाल ही में महिला कुश्ती पहलवानों ने आरोप लगाया है कि कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष व भाजपा सांसद ब्रजभूषण शरण सिंह ने उनका यौन उत्पीड़न किया है। किंतु दिल्ली पुलिस द्वारा प्राथमिकी दर्ज न करने पर सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली पुलिस को नोटिस जारी किया है। दिल्ली पुलिस के अनुसार प्राथमिकी दर्ज करने से पूर्व प्रारंभिक जांच आवश्यक है।
प्राथमिकी दर्ज करने हेतु प्रावधान-
- किसी आपराधिक घटना के संबंध में कार्यवाही के लिए पुलिस के पास दर्ज की गई सूचना को प्रथम सूचना रिपोर्ट(FIR) या प्राथमिकी कहा जाता है। पुलिस द्वारा इस प्रकार की सूचना दर्ज नहीं की जाती तो व्यक्ति को न्यायालय के पास जाने का अधिकार है।
- संविधान में प्राथमिकी दर्ज करने हेतु दण्ड प्रक्रिया संहिता 154(1) दिया गया है। जिसके तहत पुलिस अधिकारी को किसी भी अपराध की प्रथम सूचना प्राप्त होने पर, प्राथमिकी दर्ज करने का अधिकार है। संज्ञेय मामलों में प्राथमिकी दर्ज कराने को अनिवार्य घोषित कर दिया गया है।
(संज्ञेय अपराध- आपराधिक प्रक्रिया संहिता की धारा 1973 की धारा 2(C) के तहत यदि किसी अपराध की सजा मृत्युदण्ड या आजीवन कारावास या 3 से अधिक वर्ष का कारावास हो तो उस अपराध को संज्ञेय अपराध की श्रेणी में रखा जाता है। इसके साथ ही संगीन अपराध की दशा में पुलिस को बिना किसी वारंट के अपराधी को गिरफ्तार करने का अधिकार भी दिया गया है। इसके अंतर्गत हत्या, यौन उत्पीड़न, बलात्कार, चोरी, किडनैप आदि अपराध आते हैं। ये अपराध की जमानती व गैर जमानती दोनों श्रेणियों में आता है।)
पॉक्सो अधिनियम (POCSO)-
- POCSO अधिनियम बच्चों के खिलाफ यौन अपराधों की रिपोर्टिंग को अनिवार्य बनाता है।
- धारा 19 के अनुसार कोई भी व्यक्ति जिसे आशंका है कि POCSO अधिनियम के तहत अपराध किया गया है, ऐसी जानकारी विशेष किशोर पुलिस इकाई या स्थानीय पुलिस को प्रदान करेगा।
- अनुभाग में एक प्राथमिकी दर्ज करने की भी आवश्यकता होती है, जिसमें एक प्रविष्टि संख्या और लिखित रूप में एक रिकॉर्ड के साथ प्राप्त जानकारी दर्ज की जाती है।
प्राथमिकी दर्ज कराने के प्रभाव-
- इसके द्वारा पुलिस से अपराध के विषय में पूछताछ की मांग की जा सकती है।
- सबूतों के आधार पर चार्जशीट दायर की जा सकती है।
- कानून में ‘जीरो एफआईआर’ के पंजीकरण का भी प्रावधान है, जहां कथित अपराध भले ही संबंधित पुलिस स्टेशन के अधिकार क्षेत्र में नहीं किया गया हो, पुलिस प्राथमिकी दर्ज कर सकती है और इसे संबंधित पुलिस स्टेशन में स्थानांतरित कर सकती है।
प्राथमिकी दर्ज न करने पर-
धारा 154 (3) के अनुसार यदि एक व्यक्ति जो पुलिस प्रभारी द्वारा प्राथमिकी दर्ज करने से इनकार करने के बाद व्यथित है, तो वह पुलिस अधीक्षक को घटना की सूचना भेज सकता है। एसपी, घटना की जांच के बाद की सूचना किसी अपराध आयोग को देता है, या स्वयं मामले की जांच करता है या उसके अधीनस्थ किसी पुलिस अधिकारी को जांच का निर्देश दे सकता है।
धारा 156 (3) – सुप्रीम कोर्ट के अनुसार धारा 156 (3) के तहत पीड़ित, मजिस्ट्रेट के समक्ष अपनी शिकायत पेश कर सकता है। मजिस्ट्रेट अदालत, पुलिस स्टेशन में मामला दर्ज करने का आदेश दे सकती है। मजिस्ट्रेट के समक्ष शिकायत को प्राथमिकी माना जाएगा और पुलिस इसकी जांच शुरू कर सकती है।
प्राथमिकी दर्ज न करने पर दण्ड-
आपराधिक कानून संशोधन अधिनियम 2012- 16 दिसंबर 2012 के दिल्ली गैंग रेप केस के बाद गठित जे एस वर्मा समिति ने आपराधिक कानूनों में संशोधन से संबंधित सिफारिशें की गई, जिन्हें अधिनियम में शामिल किया गया है। इसके तहत-
- आपराधिक मामलों में प्राथमिकी दर्ज करने से इंकार करने पर पुलिस को दण्डित किया जा सकता है।
- यदि कोई लोक सेवक जानबूझकर कानून के किसी भी निर्देश की अवहेलना करता है, जिसमें संज्ञेय अपराध के संबंध में उसे दी गई किसी भी जानकारी को रिकॉर्ड न कर पाया हो तो उसे कम से कम छह महीने और अधिकतम दो साल की अवधि के लिए सश्रम कारावास दिया जा सकता है और वह जुर्माना देने के लिए भी उत्तरदायी होगा।
- महिलाओं की सुरक्षा को ध्यान में रखते इस कानून का विशेष रूप से प्रावधान किया गया है।
यौन अपराधों से बच्चों के संरक्षण- हालिया मामले में कुश्ती महासंघ के अध्यक्ष पर नाबालिग यौन शोषण का आरोप भी है अतः बच्चों को यौन शोषण से सुरक्षित करने के लिए प्राथमिकी दर्ज करने से संबंधित पॉक्सो कानून को जानना भी आवश्यक है।
- अधिनियम की धारा 21 के अनुसार किसी अपराध के होने की रिपोर्ट दर्ज न करने पर छह महीने तक के कारावास या जुर्माना या दोनों से दंडित किया जाएगा।
- अतः यह अधिनियम एक नाबालिग की शिकायत प्राप्त होने पर रिपोर्ट दर्ज करना अनिवार्य बनाता है।
प्राथमिकी दर्ज करने से पूर्व प्रारंभिक जांच –
- दिल्ली पुलिस ने उक्त मामले में प्राथमिकी(FIR) दर्ज करने से पूर्व प्रारंभिक जांच करना चाहती है। किंतु उपरोक्त यौन उत्पीड़न का मामला संज्ञेय अपराध की श्रेणी में आता है जिसमें बिना किसी प्रारंभिक जांच के प्राथमिकी दर्ज करना अनिवार्य है।
- सुप्रीम कोर्ट के अनुसार प्राथमिकी दर्ज करने से पूर्व प्रारंभिक जांच का उद्देश्य घटना का पता लगाना नहीं वरन अपराध/आरोप की प्रकृति का पता लगाना है कि वह संज्ञेय है या नहीं। और यह जांच मात्र 7 दिन की होती है।
- चूंकि आरोप यौन उत्पीड़न अर्थात संज्ञेय अपराध से संबंधित है अतः इसकी प्राथमिक जांच करना संवैधानिक नहीं हो सकता।
झूठी प्राथमिकी दर्ज करने
दण्ड प्रक्रिया संहिता की धारा 482 के तहत उच्च न्यायालय को यह अधिकार है कि वह प्राथमिकी व मुकदमे को रद्द कर सकता है। इसकी निम्न स्थिति हो सकती है-
- प्राथमिकी में झूठे तथ्य पेश करने की दशा में प्राथमिकी रद्द की जा सकती है, इसे पुलिस व शिकायतक्रता की मिलीभगत का परिणाम माना जाएगा।
- प्राथमिकी में झूठे सबूतों की स्थिति में
- इसके तहत पुलिस को कानून के विरुद्ध किसी भी कार्य को करने से रोका गया है।
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