रिश्वतखोरी संसदीय विशेषाधिकार नहीं – उच्चतम न्यायालय

रिश्वतखोरी संसदीय विशेषाधिकार नहीं – उच्चतम न्यायालय

स्त्रोत – द हिन्दू एवं पीआईबी।

सामान्य अध्ययन –  भारतीय राजनीति एवं शासन व्यवस्था , संसदीय विशेषाधिकार, जन – प्रतिनिधित्व कानून , लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 के तहत अपराध, उच्चतम न्यायालय , संवैधानिक पीठ, नोट के बदले वोट।

खबरों में क्यों ? 

 

 

  • हाल ही में भारत के उच्चतम न्यायालय की सात जजों की संवैधानिक पीठ ने 4 फरवरी, 2024 को भारत की संसद या राज्य की विधानमंडल में भाषण या वोट के लिए रिश्वत लेने के मामले में अपना  फैसला दिया है कि देश की संसद या राज्यों के विधानमंडल में भाषण या वोट के लिए रिश्वत लेना सदन के विशेषाधिकार के दायरे में नहीं आता है।
  • भारत के उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 7 जजों की संवैधानिक पीठ में निम्नलिखित न्यायाधीश शामिल थे – (1) जस्टिस एएस बोपन्ना (2) जस्टिस एमएम सुंदरेश (3) जस्टिस पीएस नरसिम्हा (4) जस्टिस  जेबी पारदीवाला (5) जस्टिस संजय कुमार (6) जस्टिस मनोज मिश्रा।

 

वर्तमान मामले की पृष्ठभूमि : 

 

  • हाल ही में भारत के उच्चतम न्यायालय में झारखंड की विधायक सीता सोरेन जो  झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की विधायक थी उस पर एक कथित रिश्वत  लेने के आरोप के मामले की सुनवाई चल रही थी ।
  • झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की विधायक सीता सोरेन पर यह आरोप लगाया गया था कि उन्होंने सन 2012 में भारत के उच्च सदन अर्थात भारत के राज्यसभा के लिए होने वाले चुनाव में एक निर्दलीय उम्मीदवार के पक्ष में अपना मतदान करने के लिए उन्होंने उस निर्दलीय उम्मीदवार से रिश्वत ली थी।
  • भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा ही वर्ष 1998 में भारत के पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिम्हा राव बनाम राज्य मामले में दिए गए निर्णय को इस मामले का आधार बनाया गया था ।
  • भारत के उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI)  रंजन गोगोई, जस्टिस अब्दुल नज़ीर और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने इस मामले पर वर्ष 2019 में सुनवाई किया था । 
  • भारत के उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश (CJI)  रंजन गोगोई, जस्टिस अब्दुल नज़ीर और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ द्वारा उस मामले में दिए गए निर्णय की तरह ही झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की विधायक सीता सोरेन पर लगाए गए आरोप के मामले में भी निर्णय  बिल्कुल भारत के उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन  निर्णय की तरह का है । अतः भारत के उच्चतम न्यायालय के तत्कालीन निर्णय यहां भी लागू होगा और झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की विधायक सीता सोरेन को भी जन प्रतिनिधि कानून के प्रावधानों के तहत निर्दोष करार घोषित किया जायेगा, लेकिन भारत के उच्चतम न्यायालय के वर्तमान  मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 7 जजों की संवैधानिक पीठ इस मामले में भारत के उच्च न्यायालय द्वारा पूर्व में दिए गए निर्णय को पलटते हुए कहा कि – नोट के बदले वोट देना या रिश्वतखोरी संसदीय विशेषाधिकार नहीं है।” 

भारत में संसदीय विशेषाधिकार के मामले में संवैधानिक प्रावधान :

  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 105 (2) के अनुसार- भारत में यदि संसद का कोई भी सदस्य संसद या उसकी किसी समिति में अपने द्वारा कही गई किसी बात या दिए गए वोट के संबंध में भारत के किसी भी न्यायालय में उन पर किसी भी कार्यवाही नहीं होगी तथा इसके साथ – ही – साथ वह उक्त कार्य के लिए  भारत के किसी भी न्यायालय में उत्तरदायी नहीं होगा।
  • भारत की संसद में सदन के अधिकार क्षेत्र के अंतर्गत और जन प्रतिनिधि कानून के तहत भारतीय संसद या राज्य विधानमंडल का कोई भी सदस्य अर्थात सांसद या विधायक सदन के अन्दर किसी भी प्रकाशन, रिपोर्ट, पेपर, वोट या कार्यवाही के संबंध में भारत के किसी भी न्यायालय में किसी भी तरह के कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं होगा।
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 194(2) भी भारत के किसी भी राज्य विधानसभाओं के सदस्यों को इसी प्रकार की सुरक्षा प्रदान करता है।

भारत के उच्चतम न्यायालय का वर्तमान निर्णय : 

  • भारत के उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 7 जजों की संवैधानिक पीठ ने नरसिम्हा राव मामले में उच्चतम न्यायालय द्वारा दिए गए पूर्व के फ़ैसले को सिरे से ख़ारिज कर दिया।
  • भारत के उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश (CJI) डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 7 जजों की वर्तमान संवैधानिक पीठ ने कहा कि – “ भारत में कोई भी अकेला विधायक या सांसद इस तरह के विशेषाधिकार का उपयोग नहीं कर सकता है।” 
  • भारत में जन प्रतिनिधियों को प्रदान किए जाने वाला विशेषाधिकार भारत में उस सदन को सामूहिक रूप से दिया जाता है।
  • भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा अपने ही एक पूर्व निर्णय जिसका संबंध नरसिम्हा राव के मामले से है , में दिया गया फ़ैसला संविधान के अनुच्छेद 105 (2) और 194(2) का विरोधाभासी है।
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 105 (2) और 194 (2) के तहत जन- प्रतिनिधियों को संसद और विधानसभाओं के अंदर कुछ करने और कहने के लिए दी गई छूट सदन की सामूहिक कार्य प्रणाली से संबंधित होता है , न कि वह व्यक्तिगत होता है ।
  • भारत में यदि कोई भी जन-प्रतिनिधि किसी भी प्रकार का रिश्वत लेता है, उसी समय उसके विरुद्ध मामला बन जाता है।
  • अतः झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) की विधायक सीता सोरेन के इस मामले में यह मायने नहीं रखता कि उसने सदन में बाद में सवाल पूछा था या की भाषण दिया की नहीं दिया था।
  • भारत में यदि कोई भी सांसद या विधायक रिश्वत लेकर सदन में अपना भाषण देता हैं या अपना मतदान करता हैं, तो उन पर भारत में न्यायालय में आपराधिक मामला चलाया जा सकता है।
  • भारत में सांसदों और विधायकों को रिश्वत लेने के मामलों में क़ानूनी संरक्षण प्रदान नहीं किया जा सकता है ।

भारत में वर्तमान में जन प्रतिनिधियों को प्रदान किए जाने वाले विशेषाधिकारों की कानूनी व्याख्या :

 

  • भारत में संसदीय विशेषाधिकारों के इतिहास पर उच्चतम न्यायालय ने कहा कि भारत में ये अधिकार औपनिवेशिक काल के दौरान भी एक क़ानून से अलग थे, भारत की स्वतंत्रता के बाद यह अधिकार एक संवैधानिक विशेषाधिकार में बदल गया था।
  • सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि ब्रिटेन में हाउस ऑफ कॉमन्स में संसद और राजा के बीच संघर्ष के बाद संसदीय विशेषाधिकारों की शुरुआत  हुई थी ।
  • भारत के उच्चतम न्यायालय  के अनुसार-  संसदीय विशेषाधिकार के मुख्य रूप से दो घटक हैं; 
  • एक विशेषाधिकार का प्रयोग सदन सामूहिक रूप से करता है। इसमें शामिल हैं – अपनी अवमानना ​​के लिए दंडित करने की शक्ति, तथा अपने स्वयं के मामलों का संचालन करने की शक्ति, आदि। 
  • दूसरा विशेषाधिकार व्यक्तिगत अधिकारों के लिए है। इसमें शामिल हैं – प्रत्येक सदस्य द्वारा बोलने की स्वतंत्रता का अधिकार।
  • भारत के उच्चतम न्यायालय ने जन प्रतिनिधियों को प्रदान किए जाने वाले विशेषाधिकारों की व्याख्या भारत के संविधान के बड़े आदर्शों के अनुरूप किया है ।
  • भारत के उच्चतम न्यायालय  ने कहा, इसके लिए एक परीक्षण (Test) पास करना होगा।
  • सरकार के अनुसार, ‘आवश्यकता परीक्षण’ (necessity test) के कारण सांसद या विधायक अपने कार्यों का निर्वहन नहीं कर सकेंगे।
  • यह उनके भाषण देने की स्वतंत्रता के अधिकार के विपरीत है।
  • भारत के उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ की अध्यक्षता वाली 7 जजों की संवैधानिक पीठ ने कहा कि संविधान सार्वजनिक जीवन में ईमानदारी की परिकल्पना करता है। 
  • विधायिका के सदस्यों का भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी भारतीय संसदीय लोकतंत्र की नींव को कमजोर करती है। 
  • यह संविधान के आकांक्षात्मक और विचारशील आदर्शों के लिए विनाशकारी है। 
  • यह एक ऐसी राजनीति की ओर बढ़ रही है जो भारत में जन प्रतिनिधियों द्वारा भारत के नागरिकों को एक जिम्मेदार, उत्तरदायी और प्रतिनिधित्ववादी  लोकतंत्र से वंचित करता है।
  • भारत के जन प्रतिनिधियों को एक कानून निर्माता के रूप में अपने कार्यों का निर्वहन करने के लिए रिश्वत लेने को उचित नहीं ठहराया जा सकता है।

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 : 

  • लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 भारत में होने वाले आम चुनाव के संचालन के प्रावधानों से संबंधित है।
  • इस अधिनियम में भ्रष्टाचार और चुनाव से संबंधित अन्य अवैध गतिविधियों से है।
  • इस अधिनियम में चुनाव से जुड़े मामलों में विवादों से संबंधित निवारण के प्रावधानों को शामिल किया गया  है।
  • इस अधिनियम में सांसदों और विधायकों की योग्यता के साथ-  साथ अयोग्यता के प्रावधानों की भी विस्तृत व्याख्या शामिल है।

लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 में परिभाषित चुनावों से संबंधित अपराध की परिभाषा : 

  1. जन -प्रतिनिधि या उम्मीदवार द्वारा नफरत और दुश्मनी को बढ़ावा देना अपराध की श्रेणी में आता है।
  2. जन -प्रतिनिधि या उम्मीदवार द्वारा अपने आधिकारिक कर्तव्य का उल्लंघन करना और किसी भी उम्मीदवार को समर्थन प्रदान करना भी इस श्रेणी में आता है।
  3. जन -प्रतिनिधि या उम्मीदवार बूथ कैप्चरिंग कस्र्ण या  मतपत्र को लूटना या हटाना या अन्य प्रकार का छेड़छाड़ करना अपराध की श्रेणी में आता है। 
  4. उम्मीदवार या जन -प्रतिनिधि द्वारा मतदान समाप्ति के 2 दिन पूर्व तक शराब की बिक्री में संलग्न होना अपराध की श्रेणी में आता है।
  5. उम्मीदवार या जन -प्रतिनिधि द्वारा मतदान से 48 घंटे पहले सार्वजनिक बैठकों की घोषणा करना और अशांति भी पैदा करना भी अपराध की श्रेणी में आता है।

पीवी नरसिम्हा राव मामले की पृष्ठभूमि :

 

  • भारत में वर्ष 1991 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी।
  • पीवी नरसिम्हा राव प्रधानमंत्री बने। नरसिम्हा राव की सरकार के सामने कई चुनौतियां थीं; सबसे बड़ा चुनौती आर्थिक संकट था। उनकी सरकार ने वर्ष 1991 में ऐतिहासिक आर्थिक सुधार किया और अर्थव्यवस्था का उदारीकरण हुआ। इसी समय राजनीतिक स्तर पर राम जन्मभूमि आंदोलन अपने चरम पर था। उत्तर प्रदेश के अयोध्या में 6 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद गिराई गई थी।

संसद में पीवी नरसिम्हा राव सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पेश करने का मुख्य कारण :  

  • 26 जुलाई, 1993 के मानसून सत्र में CPI(M) के अजॉय मुखोपाध्याय ने नरसिम्हा राव सरकार के ख़िलाफ़ अविश्वास प्रस्ताव पेश किया था ।
  • अजॉय मुखोपाध्याय द्वारा अविश्वास प्रस्ताव पेश करने के संदर्भ में निम्नलिखित कारणों को जिम्मेवार बताया गया था – 
  1. IMF और विश्व बैंक के सामने समर्पण कर जन-विरोधी आर्थिक नीतियों को लाने से बेरोज़गारी और मंहगाई बढ़ रही है।
  2. इससे भारतीय उद्योग और किसानों के हितों पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है।
  3. रकार द्वारा सांप्रदायिक ताकतों के प्रति समझौतावादी रवैये अपनाने के कारण अयोध्या की घटना हुई।
  4. सरकार संविधान में उल्लिखित धर्मनिरपेक्षता की भावना को बचाने में असफल हो रही है।
  5. बाबरी मस्जिद के विध्वंस के लिए ज़िम्मेदार लोगों को सज़ा नहीं देने में तत्कालीन सरकार असफल साबित हुई थी।
  • भारत में तत्कालीन लोकसभा में 528 सीटें थीं और कांग्रेस के पास 251 सीटें थीं। अतः पीवी नरसिम्हा राव को सरकार बचाने के लिए 13 और सीटों की ज़रूरत थी। अतः 28 जुलाई, 1993 को उस अविश्वास प्रस्ताव पर संसद में वोटिंग हुई, और उस अविश्वास प्रस्ताव में 14 वोटों से सरकार गिर गया। उस अविश्वास प्रस्ताव के पक्ष में 251 और इसके विरोध में 265 वोट पड़े थे। इस वोटिंग के तीन साल बाद उस रिश्वत कांड का मामला सामने आया। राष्ट्रीय मुक्ति मोर्चा के सदस्य रवींद्र कुमार ने 1 फरवरी, 1996 को CBI के पास शिकायत की। इस शिकायत में यह आरोप लगाया गया कि जुलाई, 1993 में कांग्रेस के कुछ नेताओं ने कुछ राजनीतिक दलों के सांसदों को रिश्वत देकर बहुमत साबित करने की साज़िश रची थी। CBI ने इस मामले में झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) के कुछ सांसदों पर मुकदमा दर्ज किया था।

भारत के उच्चतम न्यायालय का पीवी नरसिम्हा राव बनाम राज्य मामले में दिया गया निर्णय  :

  • भारत के उच्चतम न्यायालय  ने CBI की जांच के परिप्रेक्ष्य में निर्णय दिया कि;- झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के सांसदों ने संसद में अविश्वास प्रस्ताव के विरुद्ध मतदान करने के लिए रिश्वत लिया था। फलतः उनके और कुछ अन्य सांसदों के मतदान के कारण ही पीवी नरसिम्हा राव की सरकार बच पाई थी ।
  • भारत में वर्ष 1998 में 3-2 के बहुमत से पांच जजों की पीठ ने पीवी नरसिम्हा राव बनाम राज्य मामले में महत्वपूर्ण फ़ैसला दिया था 
  • इस फैसले के अनुसार – “ जन-प्रतिनिधियों को संसद और विधानमंडल में अपने भाषण तथा वोटों के लिए रिश्वत लेने के मामले में आपराधिक मुक़दमे से छूट होगी। ये उनका विशेषाधिकार है। सदन में किए गए किसी भी कार्य के लिए उन पर मुक़दमा नहीं चलाया जा सकता है।”

निष्कर्ष / समाधान : 

 

  • वर्तमान निर्णय के संदर्भ में भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की पीठ को यह भी देखना था कि क्या किसी सांसद या विधायक को उस समय किसी भी प्रकार की छूट दी जा सकती है,  जब सांसद या विधायक रिश्वत तो लेता है, लेकिन वोट अपने विवेक या अपनी राजनीतिक पार्टी के अनुसार देता है न कि रिश्वत देने वाले के अनुरोध के अनुसार। 
  • भारत के उच्चतम न्यायालय के मुख्य न्यायाधीशों ने भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7 का विश्लेषण किया, जिसका संबंध लोक सेवक को रिश्वत देने से संबंधित अपराध ‘ से है।
  • भारत में जन प्रतिनिधियों के संदर्भ में भारत के उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि एक निश्चित तरीके से कार्य करने या कार्य करने से रोकने के लिए अनुचित लाभ प्राप्त करना, स्वीकार करना या प्रयास करना , जनप्रतिनिधियों के द्वारा किए गए अपराध के लिए पर्याप्त आधार प्रदान करता  है। अतः यह आवश्यक नहीं है कि जिस कार्य के लिए रिश्वत लिया या दिया गया  है, वह वास्तव में किया ही गया हो।
  • भारत के उच्चतम न्यायालय ने कहा कि रिश्वत लेना एक अपराध है और यह इस बात पर निर्भर नहीं करता है कि लोक सेवक ने अलग तरीके से काम किया है या नहीं।
  • सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि – यदि इस वर्ग को असाधारण सुरक्षा प्रदान की जाती है तो लोक सेवकों का एक ‘ नाजायज वर्ग ’ बनाना संविधान के अनुच्छेद 14 के तहत समानता के अधिकार का उल्लंघन होगा।”
  • भारत में संसद के पास अपने सदस्यों को अवमानना ​​के लिए दंडित करने की शक्ति प्राप्त है। जिसके तहत वह सांसदों को  सदन से निलंबन कर सकती है या सांसदों को जेल की सजा भी हो सकती है। 
  • इस संदर्भ में क्या भारत के उच्चतम न्यायालय की कोई भूमिका है या नहीं। भारत के उच्चतम न्यायालय को यह ही तय करना था। अतः भारत के उच्चतम न्यायालय ने निर्णय दिया कि – 
  1. उच्चतम न्यायालय और भारत की संसद दोनों समानांतर रूप से कानून निर्माताओं के कार्यों पर अपने अधिकार क्षेत्र का प्रयोग कर सकते हैं। 
  2. रिश्वतखोरी का मुद्दा सदन द्वारा अपने रिश्वत लेने वाले सदस्यों पर अधिकार क्षेत्र की विशिष्टता का नहीं है। 
  3. रिश्वत लेने के लिए किसी सदस्य द्वारा की गई अवमानना ​​के खिलाफ कार्रवाई करने वाले सदन का उद्देश्य आपराधिक अभियोजन से अलग उद्देश्य पूरा करता है।
  4. ऐसा इसलिए है कि सदन द्वारा दंड देने का उद्देश्य आपराधिक मुकदमे के उद्देश्य से भिन्न होता है।

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प्रारंभिक परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

Q.1. भारत में संसदीय विशेषाधिकार के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए।

  1. सांसद या विधायक सदन के अन्दर किसी भी प्रकाशन, रिपोर्ट, पेपर, वोट या कार्यवाही के संबंध में भारत के किसी भी न्यायालय में किसी भी तरह के कार्यवाही के लिए उत्तरदायी नहीं होता है।
  2. भारत में संसदीय विशेषाधिकार के मुख्य रूप से चार घटक होते हैं। 
  3. भारत में भ्रष्टाचार निवारण अधिनियम की धारा 7 का संबंध ‘ लोक सेवक को रिश्वत देने से संबंधित अपराध ‘ से है।
  4. भारत के जन प्रतिनिधियों को एक कानून निर्माता के रूप में अपने कार्यों का निर्वहन करने के लिए रिश्वत और उपहार लेना गलत नहीं है।

उपरोक्त कथन / कथनों में से कौन सा कथन असत्य है ? 

(A) केवल 1 और 3 

(B) केवल  2 और 4 

(C)  इनमें से कोई नहीं।

(D) इनमें से सभी।

उत्तर – (B) 

 

मुख्य परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

 

Q.1. लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के प्रमुख प्रावधानों को रेखांकित करते हुए यह चर्चा कीजिए कि भारत में जन प्रतिनिधि द्वारा रिश्वतखोरी किस तरह भारत के लोकतांत्रिक चरित्र, एकता, अखंडता और जन प्रतिनिधित्व विशेषाधिकारों के विरोधाभाषी है ? तर्कसंगत चर्चा कीजिए। 

 

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