16 Jan भारत – ताइवान – चीन संबंध और ताइवान में लोकतंत्र
स्त्रोत्र – द हिंदुस्तान टाइम्स एवं पीआईबी।
सामान्य अध्ययन – अंतर्राष्ट्रीय संबंध, दक्षिण चीन सागर, ताइवान का महत्व, चीन-ताइवान संघर्ष, भारत की एक्ट ईस्ट विदेश नीति, ताइवान संबंध अधिनियम, एक चीन नीति, ताइवान मुद्दे पर भारत का रुख।
ख़बरों में क्यों ?
- जनवरी, 2024 में ताइवान में हुए राष्ट्रपति चुनाव में डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (DPP) ने तीसरी बार जीत हासिल कर इतिहास रच दिया है। चीन की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कुओमिनतांग (KMT) के उम्मीदवार होउ यू-यी और नवगठित ताइवान पीपुल्स पार्टी (TPP) के नेता को वेन-जे को हराकर लाई चिंग-ते (विलियम लाई) चीनी गणराज्य के राष्ट्रपति चुने गए हैं।
- चीन के घोर विरोधी और लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले लाई चिंग-ते (विलियम लाई) का ताइवान के नए राष्ट्रपति के रूप में चुना जाना भारत के रणनीतिक नजरिए से खुशखबरी है, क्योंकि चीन ने राष्ट्रपति चुनाव में उनके पक्ष में मतदान न करने की अपील की थी। वो सत्ताधारी डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी (डीपीपी) पार्टी के नेता हैं। भारत के लिए चीन और मालदीव संबंध में यह बात बिल्कुल सटीक बैठती है कि ‘शिकारी खुद यहां शिकार हो गया’। मालदीव पर मुखर होने वाले चीन की टेंशन बढ़ गई है क्योंकि जिसे चीन नहीं चाहता था, वे लाई चिंग ते ताइवान के नए राष्ट्रपति चुने गए हैं।
- मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मोइज्जू ‘इंडिया आउट’ के नारे लगाकर चुनाव जीते और आते ही भारत विरोधी निर्णय लेने लगे। इससे चीन खुश हो गया। क्याेंकि मोइज्जू चीन के पक्षधर और के घोर भारत विरोधी हैं। चीन को अपना ‘सबकुछ’ मानने वाले मालदीव के मोइज्जू चुनकर आते ही पहले चीन की यात्रा पर गए और मालदीव के राष्ट्रपति के रूप में चुनकर आने परसबसे पहले भारत की यात्रा करने की परंपरा को तोड़ दिया। मालदीव के राष्ट्रपति मोहम्मद मोइज्जू चीन में जाकर चीन से चीनी पर्यटकों को बड़ी संख्या में मालदीव भेजने की गुहार की, ताकि भारत के पर्यटकों की संख्या कम होने पर भरपाई हो सके। चीन ने भी अपने सरकारी अखबार ‘ग्लोबल टाइम्स’ में भारत विरोधी बातें लिखीं। परोक्ष रूप से ही सही लेकिन भारत की ओर इशारा करते हुए चीन ने कहा कि ‘कोई मालदीव में हस्तक्षेप करेगा तो चीन बर्दाश्त नहीं करेगा।’ लेकिन ताइवान में नवनिर्वाचित राष्ट्रपति लाई चिंग के चुनकर आने के बाद कहानी बदल गई।
- उनकी पार्टी डीपीपी की विचारधारा ताइवान के राष्ट्रवाद पर आधारित है, जो ताइवान की पहचान को काफी अहम मानती है।
बीजिंग की दबाव का उल्टा असर :
- लाई चिंग-ते (विलियम लाई) को लगभग 40% वोट मिले हैं , जबकि केएमटी और टीपीपी उम्मीदवारों को क्रमशः 33% और 26% वोट मिले।
- चीन ने लाई को लगातार ‘अलगाववादी’ और ताइवान की स्वतंत्रता का समर्थक बताया है। इसने ताइवान जलडमरूमध्य में ज्यादा पोत और हवाई जहाज भेजने के साथ नाकेबंदी की मॉक ड्रिल करके सैन्य दबाव भी बढ़ा दिया है। इस ग्रे जोन वॉरफेयर टैक्टिक्स से चीन ने ताइवान को डराने की भरपूर कोशिश की है।
- मतदान से कुछ ही दिन पहले नववर्ष के मौके पर अपने संबोधन में राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने कहा कि एकीकरण एक ऐतिहासिक अनिवार्यता है और चीन निश्चित रूप से ताइवान के साथ ‘एकीकृत’ होगा। जिनपिंग ने तो यह कहकर दबाव बढ़ाने की कोशिश की, लेकिन ऐसा लगता है कि इसका उल्टा असर हुआ है।
चुनावी बहुमत का वर्तमान भावार्थ :
- 2016 और 2020 के चुनावों में निवर्तमान डीपीपी अध्यक्ष साई इंग-वेन ने आसानी से बहुमत हासिल किया था। भले ही डीपीपी के हिस्से 2020 में 57% के मुकाबले 2024 में घटकर 40% के आसपास ही वोट आए लेकिन ऐसा इसलिए है क्योंकि इस वर्ष वास्तव में त्रिकोणीय चुनावी जंग हुई। उतना ही महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि चुनाव में खड़े तीसरे उम्मीदवार को वेन-जे कई सालों तक डीपीपी समर्थक रहे थे। संक्षेप में, 2016 से ही वोटिंग में केएमटी विरोधी वोट लगातार 50% से अधिक रहे हैं।
स्थानीय पहचान की भावना का विकास :
- 2024 के राष्ट्रपति चुनाव ने दो महत्वपूर्ण रुझानों की पुष्टि की है – चीन के साथ तालमेल का केएमटी का संदेश ताइवान के लोगों को पसंद नहीं आ रहा है। और
- ताइवान के लोगों में स्थानीय पहचान की भावना बढ़ रही है। चीनी गणराज्य से अलग एक ताइवानी पहचान के लिए 2014 में शुरू हुआ सनफ्लावर मूवमेंट की जड़ें बहुत गहरी हो गई हैं। इसका मतलब यह है कि अधिक से अधिक युवा ताइवानी खुली हवा में सांस लेना चाहते हैं और उन्हें डर है कि अगर ताइवान का चीन में विलय हो जाएगा तो शायद उन्हें यह आजादी नहीं मिल पाए।
क्या है चीन और ताइवान के बीच तनाव का कारण :
- ताइवान द्वीप दक्षिणी – पूर्वी चीन के तट से 161 किमी दूर है। चीन हमेशा से मानता आया है कि ताइवान उसका ही हिस्सा है जो अलग हो गया है। चीन ये भी मानता है कि एक दिन ताइवान का फिर से उसमें विलय हो जाएगा. मगर ताइवान की एक बड़ी आबादी खुद को एक अलग देश के रूप में ताइवान को देखना चाहती है।
- 17वीं शताब्दी में, जब चीन पर चिंग राजवंश का शासन था। 1683 से 1895 तक चिंग राजवंश चीन और ताइवान पर शासन किया था। सन 1894-95 के युद्ध में चीन जापान से हार गया, फलस्वरूप इसके बाद ताइवान जापान के हिस्से वाले भाग में चला गया।
- साल 1939 में दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत हुई। यह युद्ध धुरी राष्ट्र (जर्मनी, इटली और जापान) और मित्र राष्ट्रों (फ्रांस, ग्रेट ब्रिटेन, अमेरिका, सोवियत संघ और कुछ हद तक चीन) के बीच लड़ा गया था। जापान की हार के बाद चीन के बड़े राजनेता और मिलिट्री कमांडर चैंग काई शेक को ताइवान सौंप दिया गया। तब तक ताइवान चीन का ही हिस्सा था।
- 1949 में चीन में शेक और कुओमिनतांग पार्टी (केएमटी) के खिलाफ गृहयुद्ध छिड़ गया। चीन की कम्युनिस्ट सेना ने चैंग काई को हरा दिया। इसके बाद माओत्से तुंग के नेतृत्व में कम्युनिस्टों ने बीजिंग की सत्ता पर कब्जा कर लिया और चैंग काई शेक (केएमटी) अपने सहयोगी के साथ चीन से भागकर ताइवान चले गए। उन्होंने ताइवान पर अपना शासन जमा लिया। उधर चीन ने दुनिया को ये बताया कि ताइवान उसका ही हिस्सा है। अतः ताइवान पर चीन का ही शासन कायम है।
- केएमटी और कम्युनिस्ट दोनों एकदूसरे के कट्ठर दुश्मन बन गए. हालांकि साल 1980 के दशक में दोनों के रिश्ते बेहतर होने शुरू हुए. दोनों के बीच युद्ध विराम का ऐलान हो गया. ताइवान में 1996 में पहली बार राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव हुआ. जीत सत्ताधारी पार्टी को मिली.
- वर्ष 2000 ई. में हुए चुनाव में KMT ने ताइवान में अपनी सत्ता खो दी। ताइवान के नए राष्ट्रपति चेन श्वाय बियान ने खुलेआम चीन का विरोध किया और खुद को एक स्वतंत्र राष्ट्र बताया। यहां से फिर से चीन और ताइवान के बीच संबंध बिगड़ते चले गए।
वर्तमान हालात में चीन की मुश्किल :
- बीजिंग को कम से कम अगले चार वर्ष तक अपने सबसे खराब विकल्प के साथ तालमेल बनाए रखना होगा। ताइवान की युवा पीढ़ी को यूनिफाइड चीन को लेकर बहुत कुछ पता नहीं है। कम्युनिस्ट शासन के तहत चीनी समाज में मौलिक बदलाव आ गया है, जिसके कारण ताइवानियों लिए चीन के साथ जुड़ना मुश्किल होता जा रहा है। अभी भी केएमटी का समर्थन करने वाले ताइवान के कई नेताओं के पास ‘दोहरी नागरिकता’ है, लेकिन आम ताइवानियों के पास अन्य किसी भी जगह या देश में जाने के लिए कोई और जगह नहीं है। बीजिंग इस मजबूत होती पहचान को “जीरो सम गेम” के रूप में देख रहा है। ऐसा इसलिए भी है क्योंकि सन 1949 से ही चीन एक मिनट के लिए भी ताइवान पर अपना अधिकार नहीं जमा सका है।
सामरिक दृष्टिकोण से ताइवान का महत्व :
- ताइवान पश्चिमी प्रशांत महासागर में चीन, जापान और फिलीपींस से सटे रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण स्थान पर स्थित है। इसका स्थान दक्षिण पूर्व एशिया और दक्षिण चीन सागर के लिए एक प्राकृतिक प्रवेश द्वार प्रदान करता है , जो वैश्विक व्यापार और सुरक्षा के लिए महत्वपूर्ण हैं।
- यह अर्धचालक सहित उच्च तकनीक इलेक्ट्रॉनिक्स का एक प्रमुख उत्पादक देश है , और दुनिया की कुछ सबसे बड़ी प्रौद्योगिकी कंपनियों का घर है।
- ताइवान दुनिया के 60% से अधिक अर्धचालक और 90% से अधिक सबसे उन्नत अर्धचालकों सेमी कंडक्टरों का उत्पादन करता है।
- ताइवान के पास एक आधुनिक और सक्षम सेना है जो अपनी संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता की रक्षा पर केंद्रित है।
- ताइवान क्षेत्रीय और वैश्विक भू-राजनीति का एक प्रमुख केंद्र है, जिसमें एशिया-प्रशांत क्षेत्र और उससे आगे शक्ति संतुलन को प्रभावित करने की क्षमता है।
अमेरिका की ताइवान में दिलचस्पी का प्रमुख कारण :
- ताइवान द्वीपों की एक श्रृंखला से बना हुआ है जिसमें अमेरिका के अनुकूल क्षेत्रों की एक सूची शामिल है जिसे अमेरिका, चीन की विस्तारवादी नीति का मुकाबला करने के लिए लाभ उठाने के स्थान के रूप में उपयोग करने की योजना बना रहा है।
- अमेरिका के ताइवान के साथ आधिकारिक राजनयिक संबंध नहीं हैं, लेकिन द्वीप को अपनी रक्षा के साधन प्रदान करने के लिए अमेरिकी कानून (ताइवान संबंध अधिनियम, 1979) के तहत बाध्य है।
- यह ताइवान के लिए अब तक का सबसे बड़ा हथियार डीलर है और ‘रणनीतिक अस्पष्टता’ नीति का पालन करता है।
भारत का ताइवान के प्रति नीति :
भारत – ताइवान संबंध :
- पिछले कुछ वर्षों में भारत-ताइवान संबंध “ भारत की एक्ट ईस्ट फॉरेन पॉलिसी ’ के एक हिस्से के रूप में, धीरे-धीरे सुधार हो रहा है। भारत ने व्यापार और निवेश में ताइवान के साथ व्यापक संबंध विकसित करने के साथ-साथ विज्ञान और प्रौद्योगिकी, पर्यावरण मुद्दे और आपस में मानवीय संबंधों के आदान-प्रदान में सहयोग विकसित करने की मांग की है।
- भारत और ताइवान के बीच औपचारिक राजनयिक संबंध न होने के बावजूद,भी बारात और ताइवान सन 1995 ई. से एक – दूसरे की राजधानियों में अपना प्रतिनिधि कार्यालय बनाए हुए हैं जो वास्तव में दूतावासों के रूप में कार्य कर रहे हैं। इन कार्यालयों ने उच्च-स्तरीय यात्राओं की सुविधा प्रदान की है और दोनों देशों के बीच आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों को सुदृढ़ करने में सहायता प्रदान की है।
एक चीन नीति :
- ताइवान को चीन के ही हिस्से के रूप में मान्यता देने की नीति ‘ एक चीन नीति’ का भारत अभी तक पालन करता रहा है।
- ‘ एक चीन नीति ’ का समर्थन करने के पीछे भारत भी यह उम्मीद करता है कि चीन जम्मू-कश्मीर जैसे क्षेत्रों पर भारत की संप्रभुता को मान्यता दे।
- भारत ने हाल ही में ‘ एक चीन नीति ’ के पालन का जिक्र करना बंद कर दिया है। हालाँकि चीन के साथ संबंधों के कारण ताइवान के साथ भारत का जुड़ाव प्रतिबंधित है , लेकिन वह ताइवान को एक महत्वपूर्ण आर्थिक भागीदार और रणनीतिक सहयोगी के रूप में देखता है।
- ताइवान के साथ भारत के बढ़ते संबंधों को चीन के बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के कदम के रूप में भी देखा जा रहा है।
- वन चाइना नीति बीजिंग की लंबे समय से चली आ रही स्थिति को मान्यता देती है कि केवल एक चीन है और ताइवान उसका हिस्सा है।
- एक-चीन नीति के अनुसार – बीजिंग के साथ राजनयिक संबंध स्थापित करने के इच्छुक किसी भी देश को उसकी “एक चीन” नीति को स्वीकार करना होगा।
- एक चीन नीति “एक चीन सिद्धांत” से भी अलग है, जो इस बात पर जोर देता है कि ताइवान और मुख्य भूमि चीन दोनों एक ही “चीन” के अविभाज्य हिस्से हैं।
‘ एक देश – दो सिस्टम ’ दृष्टिकोण :
- ‘ एक देश – दो प्रणालियाँ ’ का सिद्धांत सबसे पहले डेंग जियाओपिंग द्वारा प्रस्तावित किया गया था, जो ऐतिहासिक रूप से पूंजीवादी अर्थव्यवस्था वाले चीनी क्षेत्रों (ताइवान, हांगकांग और मकाऊ) के साथ कम्युनिस्ट मुख्य भूमि के बीच संबंधों को बहाल करने का एक तरीका था। यह प्रणाली प्रारंभ में ताइवान के लिए प्रस्तावित की गई थी।
- ताइवानियों ने मांग की थी कि यदि उन्हें एक देश, दो सिस्टम दृष्टिकोण को स्वीकार करना है, तो पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना (पीआरसी) का नाम बदलकर रिपब्लिक ऑफ चाइना रखा जाना चाहिए। और,
- मुख्य भूमि चीन में लोकतांत्रिक चुनाव कराने होंगे। हालाँकि इसे मुख्य भूमि चीन द्वारा स्वीकार नहीं किया गया था।
- उन्होंने सुझाव दिया था कि केवल एक चीन होगा, लेकिन हांगकांग और मकाऊ जैसे विशिष्ट चीनी क्षेत्र अपनी आर्थिक और प्रशासनिक व्यवस्था बनाए रख सकते हैं, जबकि शेष चीन चीनी विशेषताओं वाली समाजवाद प्रणाली का उपयोग करता रह सकता है।
- 1984 में इस अवधारणा को चीन-ब्रिटिश संयुक्त घोषणा में शामिल किया गया था, जिसमें दोनों देश इस बात पर सहमत हुए थे कि ब्रिटेन हांगकांग की संप्रभुता चीन को सौंप देगा।
- चीन रक्षा और विदेशी मामलों के लिए ज़िम्मेदार है लेकिन हांगकांग अपनी आंतरिक सुरक्षा स्वयं चलाता है।
सैन टोंग या तीन लिंकेज :
- यह 1979 में पीआरसी द्वारा ताइवान जलडमरूमध्य और चीन के बीच तीन सीधे संपर्क खोलने का एक प्रस्ताव था, जो निम्नलिखित थी – डाक सेवाएं , व्यापार और परिवहन का क्षेत्र।
- “थ्री लिंक्स” को आधिकारिक तौर पर 2008 में ताइवान स्थित स्ट्रेट्स एक्सचेंज फाउंडेशन (एसईएफ) और चीन के एसोसिएशन फॉर रिलेशंस अक्रॉस द ताइवान स्ट्रेट (एआरएटीएस) के बीच एक समझौते में स्थापित किया गया था।
- इससे यात्रा की दूरी कम हो गई और ताइवान के लिए व्यापार के अवसरों में वृद्धि हुई।
- इससे दोनों देशों के बीच आर्थिक अंतर-निर्भरता में वृद्धि तो हुई, लेकिन इसने इसके साथ – ही – साथ ताइवान को मुख्य भूमि चीन में खींचे जाने को लेकर चिंताएं बढ़ा दीं।
सूरजमुखी आंदोलन :
- ताइवान की संघर्षरत अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने के प्रयास में केएमटी ने 2010 में ‘’ आर्थिक सहयोग फ्रेमवर्क समझौते (ईसीएफए)’ के तहत चीन के साथ व्यापार संबंधी बाधाओं में ढील दी।
- इससे ताइवान की अर्थव्यवस्था पर गहरा असर पड़ा और वह पूरी तरह से चीन पर निर्भर हो गया। यह ताइवान के छोटे और मध्यम आकार के उद्यम विनिर्माण के लिए नुकसानदेह साबित हुआ।
- कार्यकर्ताओं ने सत्तारूढ़ दल कुओमितांग (केएमटी) द्वारा खंड-दर-खंड समीक्षा के बिना विधायिका में क्रॉस-स्ट्रेट सर्विस ट्रेड एग्रीमेंट (सीएसएसटीए) पारित करने का विरोध किया।
- यह आंदोलन सत्तारूढ़ दल की नीतियों के प्रति स्वाभाविक असंतोष से उत्पन्न हुआ था।
- “सूरजमुखी छात्र आंदोलन” शब्द का तात्पर्य – प्रदर्शनकारियों द्वारा आशा के प्रतीक के रूप में सूरजमुखी के उपयोग से है, क्योंकि इसका प्रतीकात्मक फूल हेलियोट्रोपिक है।
चीन पर ताइवान का प्रभाव :
- ताइवानियों ने चीन के आर्थिक और तकनीकी विकास में बहुत बड़ा योगदान दिया है। इससे चीन को दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनने में मदद मिली है।
- चीन और ताइवान के बीच इस रिश्ते को केवल सहभोजिता के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है, जिसमें ताइवान को केवल कुछ लाभ मिलते हैं।
- ताइवानी स्वतंत्र होने और भारत और न्यूजीलैंड जैसे अन्य देशों में निवेश करने की कोशिश कर रहे हैं ताकि उन्हें चीन पर पूरी तरह से निर्भर होने से रोका जा सके।
निष्कर्ष / समाधान की राह :
- वैश्विक अर्थव्यवस्था में रूस की अर्थव्यवस्था की तुलना में चीनी अर्थव्यवस्था कहीं अधिक जुड़ी हुई है। यदि चीन ताइवान पर आक्रमण करना चाहता है, तो यूक्रेन संकट के समान ही उसे बहुत सावधानी से ताइवान की संप्रभूता के अंतर को भी ध्यान में रखना होगा ।
- वैश्विक पटल पर ताइवान पर चीन के आक्रमण से एशिया का एक अलग ही भू – राजनीतिक परिदृश्य चिन्हित किया जायेगा , क्योंकि ताइवान का मुद्दा केवल एक सफल लोकतंत्र के विनाश की अनुमति देने या अंतरराष्ट्रीय नैतिकता के नैतिक प्रश्न तक ही सीमित नहीं है, बल्कि यह किसी भी एशियाई देश की स्वयं की संप्रभुता का भी प्रश्न है।
- भारत ‘ एक चीन नीति ’ पर पुनर्विचार कर सकता है और चीन के साथ अपने रिश्ते को ताइवान के साथ अलग कर सकता है, जैसे चीन अपनी महत्वाकांक्षी परियोजना चीन – पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (सीपीईसी) के माध्यम से पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर (पीओके) में अपनी भागीदारी बढ़ा रहा है।
- ताइवान चीन पर अपनी निर्भरता कम करने के लिए अन्य देशों में निवेश करना चाह रहा है, क्योंकि अधिकांश ताइवानी लोगों ने चीन में निवेश किया है।
Download yojna daily current affairs hindi med 16th January 2024
प्रारंभिक परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न :
Q.1.ताइवान में लोकतंत्र की बहाली और वर्तमान भू राजनीतिक संदर्भ में भारत – ताइबान – चीन संबंध के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए ।
- ताइवान द्वीप दक्षिणी – पूर्वी चीन के तट से 461 किमी दूर है।
- ताइवान दुनिया के 60% से अधिक अर्धचालक और 90% से अधिक सबसे उन्नत अर्धचालकों सेमी कंडक्टरों का उत्पादन करता है।
- अमेरिका , अमेरिकी कानून (ताइवान संबंध अधिनियम, 1979) के तहत ताइवान की सुरक्षा करने के लिए बाध्य है।
- सूरजमुखी छात्र आन्दोलन का प्रतीकात्मक फूल हेलियोट्रोपिक है।
उपरोक्त कथन / कथनों में से कौन सा कथन सही है ?
(A) केवल 1, 2 और 3
(B) केवल 2, 3 और 4
(C) केवल 1 और 4
(D) इनमें से सभी।
उत्तर – (B)
मुख्य परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न :
Q. 1. ताइवान में लोकतंत्र की बहाली और शीत युद्ध के बाद के अंतर्राष्ट्रीय परिदृश्य के संदर्भ में भारत – ताइवान – चीन संबधों की दृष्टिकोण से भारत की लुक ईस्ट नीति के सामरिक , आर्थिक और रणनीतिक आयामों के विभिन्न पक्षों का आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए।
Qualified Preliminary and Main Examination ( Written ) and Shortlisted for Personality Test (INTERVIEW) three times Of UPSC CIVIL SERVICES EXAMINATION in the year of 2017, 2018 and 2020. Shortlisted for Personality Test (INTERVIEW) of 64th and 67th BPSC CIVIL SERVICES EXAMINATION.
M. A M. Phil and Ph. D From (SLL & CS) JAWAHARLAL NEHRU UNIVERSITY, NEW DELHI.
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