एक राष्ट्र – एक चुनाव की वर्तमान प्रासंगिकता

एक राष्ट्र – एक चुनाव की वर्तमान प्रासंगिकता

स्त्रोत –  द हिन्दू एवं पीआईबी।

सामान्य अध्ययन – शासन एवं राजव्यवस्था , एक राष्ट्र एक चुनाव , भारतीय संविधान का संघीय चरित्र और केंद्र – राज्य संबंध ।

ख़बरों में क्यों ? 

  • कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे नेएक राष्ट्र – एक चुनाव’ के विषय पर सरकार द्वारा गठित उच्च स्तरीय समिति को पत्र लिखकर कहा है कि संसदीय शासन व्यवस्था को अपनाने वाले देश में एक साथ चुनाव की अवधारणा के लिए कोई स्थान नहीं है तथा उनकी पार्टी ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ के विचार का पुरजोर विरोध करती है। 
  • समिति के सचिव नीतेन चंद्र को भेजे सुझाव में खरगे का यह भी कहना था कि एक साथ चुनाव कराने का विचार संविधान की मूल संरचना के विरुद्ध है और यदि एक साथ चुनाव की व्यवस्था लागू करनी है, तो संविधान की मूल संरचना में पर्याप्त बदलाव की आवश्यकता होगी।
  • ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’ की अवधारणा पर भारत के पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद की अध्यक्षता वाली समिति की ओर से सुझाव के लिए पिछले साल 18 अक्टूबर 2023 को कांग्रेस अध्यक्ष को पत्र लिखा गया था।कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने वन नेशन वन इलेक्शन को लेकर बनी समिति के सचिव नितिन चंद्र को 17 जनवरी को चार पेज का पत्र लिखा है। समिति ने एक साथ देश में सभी चुनाव कराने को लेकर 18 अक्तूबर 2023 को कांग्रेस से सुझाव मांगे थे। इसके जवाब में मल्लिकार्जुन खड़गे ने यह पत्र समिति के सचिव को लिखा है। 
  • अपने पत्र में कांग्रेस अध्यक्ष खड़गे ने 17 बिंदुओं के साथ अपना जवाब भेजा है। इसमें उन्होंने कहा है कि देश में लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि एक साथ चुनाव करवाने का विचार छोड़ देना चाहिए।
  • कांग्रेस अध्यक्ष ने 17 बिंदुओं में अपने सुझाव समिति के पास भेजे हैं।
  • कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा, ‘‘भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ‘एक राष्ट्र : एक चुनाव’ के विचार का कड़ा विरोध करती है। एक संपन्न और मजबूत लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए यह जरूरी है कि इस पूरे विचार को त्याग दिया जाए।’’

खड़गे द्वारा भेजे गए पत्र में आपति के 6  मुख्य बिन्दु : 

  1. ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’  को लेकर जो उच्च – स्तरीय समिति  बनाई गई थी , वह पक्षपाती है क्योंकि इसमें विपक्षी दलों का कोई भी प्रतिनिधि शामिल नहीं है।
  2. एक साथ चुनाव को लेकर सरकार ने पहले ही अपने विचार व्यक्त कर दिए हैं। वह देश में ऐसे ही चुनाव करवाना चाहती है। समिति बनाना सिर्फ दिखावा है।
  3. इस समिति के प्रमुख  पूर्व राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद हैं। साल 2018 में संसद में उन्होंने कहा था कि बार-बार चुनाव करवाने से विकास के काम रुक जाते हैं। कांग्रेस बताना चाहती है कि विकास इसलिए नहीं हो पा रहा है, क्योंकि प्रधानमंत्री मोदी काम करने की बजाय चुनाव ही करते रहते हैं।
  4. समिति का यह तर्क है कि भारत में अगर एक साथ चुनाव होते हैं तो खर्चा बचेगा। यह बिल्कुल बेबुनियाद है। 2014 के लोकसभा चुनाव  में 3,870 करोड़ रुपए का खर्च हुआ था, जिसके बारे में समिति  का दावा है कि यह काफी ज्यादा है। इससे ठीक उल्ट भाजपा को 2016-2022 के दौरान 10,122 करोड़ रुपए का चंदा मिला था ,  जिसमें से 5271.97 करोड़ रुपए के बेनामी बॉन्ड हैं। अगर उक्त समिति और वर्तमान सरकार सच में चुनाव के खर्च पर गंभीर है तो इलेक्टोरल बॉन्ड की प्रक्रिया को पारदर्शी बनाएं।
  5. यह तर्क भी बेबुनियाद है कि आचार संहिता लगने से विकास के कामों पर असर पड़ता है। चुनाव के दौरान पहले से मौजूद योजनाएं और परियोजनाएं जारी रहती हैं।
  6. एकसाथ चुनाव कराने के लिए कई विधानसभाओं को भंग करने की आवश्यकता होगी, जो अभी भी अपने कार्यकाल के आधे (या उससे कम) समय पर हैं। यह उन राज्यों के मतदाताओं के साथ धोखा होगा।

एक राष्ट्र – एक चुनाव का परिचय : 

  • भारत में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराये जाने के मुद्दे पर इसके पक्ष और विपक्ष में बहुत ही दिनों से चर्चा जारी है। प्रधानमंत्री मोदी ने भी इस विचार का समर्थन कर इसे आगे बढ़ाया है। भारत का चुनाव आयोग, नीति आयोग, विधि आयोग और संविधान समीक्षा आयोग  इस मुद्दे पर विचार कर चुके हैं। अभी हाल ही में विधि आयोग ने देश में एक साथ चुनाव कराये जाने के मुद्दे पर विभिन्न राजनीतिक दलों, क्षेत्रीय पार्टियों और प्रशासनिक अधिकारियों की राय जानने के लिए तीन दिवसीय प्रेस विज्ञप्ति (कॉन्फ्रेंस) का आयोजन किया था। कुछ राजनीतिक दलों ने इस प्रेस विज्ञप्ति (कॉन्फ्रेंस) में ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’ के संबंध में अपनी सहमति जाहिर की थी, ,किन्तु वहीं भारत के ज्यादातर राष्ट्रीय और क्षेत्रीय राजनीतिक दलों ने इसका विरोध किया था। इस संदर्भ में उनका तर्क था कि  ‘एक राष्ट्र एक चुनाव’  का विचार भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया और भारत के संघीय ढांचे के खिलाफ है। अतः जब तक इस विचार पर आम राय नहीं बनती तब तक इसे धरातल पर उतारना संभव नहीं होगा।

एक देश – एक चुनाव की वर्त्तमान प्रासंगिकता : 

  • स्वस्थ एवं निष्पक्ष चुनाव – प्रक्रिया किसी भी लोकतंत्र की आधारशिला होते हैं। किसी भी जीवंत लोकतंत्र में चुनाव एक अनिवार्य प्रक्रिया है। भारत जैसे विशाल देश में निर्बाध रूप से निष्पक्ष चुनाव कराना हमेशा से एक चुनौती रहा है। अगर हम देश में होने चुनावों पर नजर डालें तो पाते हैं कि हर वर्ष किसी न किसी राज्य में चुनाव होते रहते हैं। चुनावों की इस निरंतरता के कारण देश हमेशा चुनावी मोड में रहता है। इससे न केवल प्रशासनिक और नीतिगत निर्णय प्रभावित होते हैं बल्कि देश के खजाने पर भारी बोझ भी पड़ता है। इस सबसे बचने के लिये नीति निर्माताओं ने लोकसभा तथा राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराने का विचार प्रस्तुत किया था ।
  • भारत  में इनके अलावा पंचायत और नगरपालिकाओं के चुनाव भी होते हैं किन्तु ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव ‘में इन्हें शामिल नहीं किया जाता है ।
  • भारत में ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’ लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने एक वैचारिक उपक्रम है। यह देश के लिए  कितना सही होगा और कितना गलत, इस पर कभी खत्म न होने वाली बहस की जा सकती है। लेकिन इस विचार को धरातल पर लाने के लिए  इसकी विशेषताओं की जानकारी होना जरूरी है।

भारत में  ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’ का वर्तमान – औचित्य : 

  • भारत में फिलहाल राज्यों के विधानसभा और देश के लोकसभा चुनाव अलग-अलग समय पर होते हैं। वन नेशन वन इलेक्शन का मतलब है कि पूरे देश में एक साथ ही लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव हों। यानी मतदाता लोकसभा और राज्य के विधानसभाओं के सदस्यों को चुनने के लिए एक ही दिन, एक ही समय पर या चरणबद्ध तरीके से अपना वोट डालेंगे।
  • आजादी के बाद 1952, 1957, 1962 और 1967 में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ ही होते थे, लेकिन 1968 और 1969 में कई विधानसभाएं समय से पहले ही भंग कर दी गईं। उसके बाद 1970 में लोकसभा भी भंग कर दी गई। इस वजह से वर्तमान समय में भारत में एक देश-एक चुनाव की परंपरा टूट गई है।

एक राष्ट्र – एक चुनाव की पृष्ठभूमि :

 

  • भारत में सन 1952, 1957, 1962, 1967 के आम चुनावों में  ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’ हो चुका है। अतः  ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’ कोई अनूठा प्रयोग नहीं है, क्योंकि, उस समय की तत्कालीन सरकारों द्वारा लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव साथ-साथ करवाए गए थे। यह क्रम तब टूटा जब 1968-69 में कुछ राज्यों की विधानसभाएँ विभिन्न कारणों से समय से पहले भंग कर दी गई। सन 1971 में लोकसभा चुनाव भी समय से पहले हो गए थे। अतः जब इस प्रकार चुनाव पहले भी करवाए जा चुके हैं तो अब करवाने में क्या समस्या उत्पन्न हो सकती है ? 
  • एक तरफ जहाँ कुछ विश्लेषकों का मानना है कि वर्तमान समय में  भारत की जनसंख्या बहुत अधिक  है, अतः भारत में एक साथ चुनाव करा पाना संभव नहीं है, तो वहीं दूसरी तरफ कुछ विश्लेषकों का मानना है कि अगर देश की जनसंख्या बढ़ी है तो तकनीक और अन्य संसाधनों का भी विकास हुआ है। इसलिए एक राष्ट्र – एक चुनाव’ की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता है । किन्तु इन सब से इसकी सार्थकता सिद्ध नहीं होती है। अतः हमें इसके पक्ष और विपक्ष दोनों ही प्रकार के तर्कों पर ध्यान देकर ही अपनी राय बनानी चाहिए।

एक राष्ट्र – एक चुनाव’ के पक्ष में तर्क : 

  • भारत मेंएक राष्ट्र – एक चुनाव’ की अवधारण एक  विकासोन्मुखी विचार है। लगातार होने वाले चुनावों के कारण देश में बार-बार आदर्श आचार संहिता लागू करनी पड़ती है। जिसके कारण सरकार आवश्यक नीतिगत निर्णय नहीं ले पाती और विभिन्न योजनाओं को क्रियान्वित या लागू करने में समस्या उत्पन्न होती है। जिससे देश में होने वाले  विकास कार्य प्रभावित होते  रहते हैं। ‘ आदर्श आचार – संहिता ’ या ‘ मॉडल कोड ऑफ कंडक्ट ’ चुनावों की निष्पक्षता बरकरार रखने के लिए ही बनाया गया था ।
  • भारत में निर्वाचन आयोग द्वारा चुनाव अधिसूचना जारी करने के बाद सत्ताधारी दल के द्वारा किसी परियोजना की घोषणा, नई स्कीमों की शुरुआत या वित्तीय मंजूरी और नियुक्ति प्रक्रिया की मनाही रहती है। इसके पीछे निहित उद्देश्य यह है कि सत्ताधारी दल को चुनाव में अतिरिक्त लाभ न मिल सके। इसलिए यदि देश में एक ही बार में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव कराया जाए तो आदर्श आचार संहिता कुछ ही समय तक लागू रहेगी, और इसके बाद विकास कार्यों को निर्बाध रूप से पूरा किया जा सकेगा।
  • एक राष्ट्र – एक चुनाव’ होने से बार-बार चुनावों में होने वाले भारी खर्च में कमी आएगी। ध्यान देने वाली बात यह है कि भारत में बार-बार चुनाव होते रहने से सरकारी खजाने पर अतिरिक्त आर्थिक बोझ पड़ता है। चुनाव पर होने वाले खर्च में लगातार हो रही वृद्धि इस बात का सबूत है कि यह देश की आर्थिक सेहत के लिये ठीक नहीं है।
  • एक राष्ट्र – एक चुनाव’ हो जाने से काले धन और भ्रष्टाचार पर रोक लगाने में मदद मिलेगी। भारत में चुनावों के दौरान राजनीतिक दलों और प्रत्याशियों द्वारा काले धन का खुलकर इस्तेमाल किया जाता है। हालाँकि देश में प्रत्याशियों द्वारा चुनावों में किये जाने वाले खर्च की सीमा निर्धारित की गई है, किन्तु राजनीतिक दलों द्वारा किए जाने वाले खर्च की कोई सीमा निर्धारित नहीं की गई है। कुछ विश्लेषक यह मानते हैं कि लगातार चुनाव होते रहने से राजनेताओं और पार्टियों को सामजिक समरसता भंग करने का मौका मिल जाता है जिसकी वजह से अनावश्यक तनाव की परिस्थितियां बन जाती हैं| एक साथ चुनाव कराये जाने से इस प्रकार की समस्याओं से निजात पाई जा सकती है।
  • एक राष्ट्र – एक चुनाव’ के तहत देश में एक बार में ही चुनाव करवा लेने से सरकारी कर्मचारियों और सुरक्षा बलों को बार-बार चुनावी ड्यूटी पर लगाने की जरूरत भी नहीं पड़ेगी। इससे उनका समय तो बचेगा ही और वे अपने कर्त्तव्यों का पालन भी सही तरीके से कर पायेंगे। भारत में चुनाव कराने के लिए संबंधित राज्यों के शिक्षकों और सरकारी नौकरी करने वाले कर्मचारियों की सेवाएं ली जाती हैं, जिससे उनका कार्य प्रभावित होता है। इतना ही नहीं, निर्बाध चुनाव कराने के लिए  भारी संख्या में पुलिस और सुरक्षा बलों की तैनाती भी की जाती है और इसके अलावा बार-बार होने वाले चुनावों से आम जन-जीवन भी प्रभावित होता रहता है।

एक राष्ट्र – एक चुनाव’ के विपक्ष में तर्क : 

  • भारत में एक राष्ट्र – एक चुनाव’ के विपक्ष में कुछ विश्लेषकों का मत है कि संविधान ने हमें संसदीय प्प्रणाली / प्रारूप प्रदान किया है । जिसके तहत लोकसभा और विधानसभाएँ पाँच वर्षों के लिए  चुनी जाती हैं, लेकिन एक साथ चुनाव कराने के मुद्दे पर भारत का संविधान मौन है. क्योंकि  संविधान में कई ऐसे प्रावधान हैं जो इस विचार के बिल्कुल विपरीत दिखाई देते हैं। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 2 के तहत संसद द्वारा किसी नए राज्य को भारतीय संघ में शामिल किया जा सकता है और अनुच्छेद 3 के तहत संसद कोई नया राज्य राज्य बना भी सकती है, जहाँ उसे अलग से चुनाव कराने पड़ सकते हैं।
  • भारतीय संविधान के अनुच्छेद 85(2)(ख) के अनुसार राष्ट्रपति लोकसभा को और अनुच्छेद 174(2)(ख) के अनुसार राज्यपाल विधानसभा को पाँच वर्ष से पहले भी भंग कर सकते हैं। अनुच्छेद 352 के तहत युद्ध, बाह्य आक्रमण या सशस्त्र विद्रोह की स्थिति में राष्ट्रीय आपातकाल लगाकर लोकसभा का कार्यकाल बढ़ाया जा सकता है। इसी तरह अनुच्छेद 356 के तहत राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया जा सकता है और ऐसी स्थिति में संबंधित राज्य के राजनीतिक समीकरण में अप्रत्याशित उलटफेर होने से वहाँ फिर से चुनाव की संभावना बढ़ जाती है।  ये सारी परिस्थितियाँ एक देश एक चुनाव के नितांत विपरीत हैं।
  •  एक राष्ट्र – एक चुनाव’ की अवधारणा भारत के संघीय ढाँचे के विपरीत होगा और संसदीय लोकतंत्र के लिए  घातक कदम सिद्ध हो सकता है। अतः लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ करवाने पर कुछ विधानसभाओं के मर्जी के खिलाफ उनके कार्यकाल को बढ़ाया या घटाया जायेगा जिससे राज्यों की स्वायत्तता प्रभावित हो सकती है। भारत का संघीय ढाँचा संसदीय शासन प्रणाली से प्रेरित है और संसदीय शासन प्रणाली में चुनावों की बारंबारता एक अकाट्य सच्चाई है।
  • ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव’ एक साथ करवाने के कारण अगर लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव एक साथ करवाए गए तो इस बात की सबसे ज्यादा संभावना है कि राष्ट्रीय मुद्दों के सामने क्षेत्रीय मुद्दे गौण हो जाएँ या इसके विपरीत क्षेत्रीय मुद्दों के सामने राष्ट्रीय मुद्दे अपना अस्तित्व खो दें। वस्तुतः लोकसभा एवं विधानसभाओं के चुनाव का स्वरूप और मुद्दे बिल्कुल अलग – अलग होते हैं। लोकसभा के चुनाव जहाँ राष्ट्रीय सरकार के गठन के लिए होता हैं, वहीं विधानसभा के चुनाव राज्य सरकार का गठन करने के लिए होता हैं। इसलिए लोकसभा में जहाँ राष्ट्रीय महत्त्व के मुद्दों को प्रमुखता दी जाती है, तो वहीं विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय महत्त्व के मुद्दों की प्राथमिकता रहती हैं।
  • एक राष्ट्र – एक चुनाव  के विपक्ष में एक तर्क यह है कि लोकतंत्र को जनता का शासन कहा जाता है। देश में संसदीय प्रणाली होने के नाते अलग-अलग समय पर चुनाव होते रहते हैं और जनप्रतिनिधियों को जनता के प्रति लगातार जवाबदेह बने रहना पड़ता है। इसके अलावा कोई भी पार्टी या नेता एक चुनाव जीतने के बाद निरंकुश होकर काम नहीं कर सकता क्योंकि उसे छोटे-छोटे अंतरालों पर किसी न किसी चुनाव का सामना करना पड़ता है। कुछ संविधान विशेषज्ञों / विश्लेषकों का मत यह है कि अगर दोनों चुनाव एक साथ कराये जाते हैं, तो ऐसा होने की आशंका बढ़ जाएगी।
  • भारत जनसंख्या के मामले में विश्व का दूसरा सबसे बड़ा देश है। लिहाजा बड़ी आबादी और आधारभूत संरचना के अभाव में लोकसभा और राज्यों की विधानसभाओं का चुनाव एक साथ कराना तार्किक प्रतीत नहीं होता।अतः भारत में एक राष्ट्र – एक चुनाव’  करवाना संभव प्रतीत नहीं होता है।

निष्कर्ष / आगे की राह : 

  • भारत की राजनीतिक पार्टियों द्वारा जिस तरह से ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव’ का विरोध किया जा रहा है उससे लगता है कि इसे निकट भविष्य में लागू कर पाना संभव नहीं है। एक देश एक चुनाव की अवधारणा में कोई बड़ी खामी या कमी नहीं है, किन्तु इसमें भी कोई दो राय नहीं कि विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र भारत हर समय चुनावी समर के चक्रव्यूह में घिरा हुआ नजर आता है।
  • भारत में वर्तमान समय में एक व्यापक चुनाव सुधार अभियान चलाने की आवश्यकता है। जिसके लिए  जन – प्रतिनिधित्व कानून में सुधार, कालेधन  पर रोक, राजनीति में बढ़ते अपराधीकरण पर रोक, लोगों में राजनीतिक जागरूकता पैदा करना आदि शामिल है जिससे भारत में समावेशी लोकतंत्र की स्थापना की जा सके।
  • यदि देश में एक देश एक कर’ यानी GSTया ‘एक देश – एक राशन कार्ड ‘लागू हो सकता है तो एक देश एक चुनाव क्यों नहीं हो सकता है ? अतः यह वर्तमान समय की जरूरत है कि भारत के सभी राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय राजनीतिक दल खुले मन से इस मुद्दे की वर्तमान प्रासंगिकता पर बहस और  चर्चा करें ताकि इसे भारत में जमीनी स्तर पर उतार कर क्रियान्वित किया जा सके।

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प्रारंभिक परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 


Q.1. भारत में ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव’ के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए।

  1. सन 1971 में लोकसभा चुनाव अपने समय से पहले हो गए थे।
  2. भारत में सन 1952, 1957, 1962, 1967 के आम चुनावों में  ‘एक राष्ट्र – एक चुनाव’ हो चुका है। 
  3. भारत में यदि एक साथ चुनाव की व्यवस्था लागू करनी है, तो संविधान की मूल संरचना में पर्याप्त बदलाव की आवश्यकता होगी।
  4. भारतीय संविधान के अनुच्छेद 2 के तहत संसद द्वारा किसी नए राज्य को भारतीय संघ में शामिल किया जा सकता है।

उपरोक्त कथन / कथनों में से कौन सा कथन सही है ?  

(A ) केवल 1 , 2 और 3 

(B) केवल 2 , 3 और 4

(C  ) इनमें से कोई नहीं ।

(D) इनमें से सभी ।

उत्तर – (D)

मुख्य परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

Q.1. “भारत की शासन व्यवस्था का चरित्र संघीय और एकात्मक है “ इस कथन के आलोक में यह चर्चा कीजिए कि भारत में ‘ एक राष्ट्र – एक चुनाव ‘ किस तरह भारत में केंद्र – राज्य संबंधों के बीच टकराहट पैदा करेगा ? तर्कसंगत व्याख्या प्रस्तुत कीजिए

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