ढोकरा व घड़वा : आदिवासी या धातुशिल्प

ढोकरा व घड़वा : आदिवासी या धातुशिल्प

ढोकरा व घड़वा : आदिवासी या धातुशिल्प

संदर्भ- हाल ही में कोलकाता के एक कलाकार ने लालबाजार को धातु शिल्पकला का केंद्र बनाया है। जिससे कई लोगों को शिल्प तकनीक सिखाई जा रही है और सशक्त बनाया जा रहा है।

ढोकरा- पश्चिम बंगाल में ढोकरा, घुमक्कड़ समुदाय के लिए प्रयुक्त होता है। वर्तमान में ढोकरा शब्द का प्रयोग शिल्प कला के लिए प्रयुक्त किया जाता है। पश्चिम बंगाल में घुमक्कड़ समुदाय की धातुशिल्पकला को ढोकरा शिल्पकला कहा जाता है। ढोकरा शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग रुथ रीव्स ने अपनी पुस्तक फोक मेटल्स ऑफ इण्डिया में किया था। पश्चिम बंगाल के बांकुरा में बिकना व वर्धमान के दरियापुर और अब लालबाजार में भी इस शिल्पकला का प्रचलन है।

घड़वा- छत्तीसगढ़ के बस्तर जिले की घसिया जाति को भी उनके धातु शिल्प के लिए जाना जाता है। घड़वा का शाब्दिक अर्थ गढ़ने वाला होता है, अतः घसिया जाति को घड़वा व शिल्पकला को घड़वा धातुशिल्प कहा जाता है। घसिया द्रविड़ियन मूल की जाति माना जाता है जो बस्तर में पीतल के बर्तन बनाने व सुधारने का कार्य करती थी। 

इसी प्रकार तेलंगाना में इसे वोजरी या ओटरी के नाम से जाना जाताा है।शिल्पकला की दृष्टि से यह दोनों समान ही हैं अंतर केवल इसके निर्माता समुदाय में है।

ढोकरा या घड़वा शिल्पकला- 

धातु की ढलाई के लिए प्रयुक्त सामग्री-  डोकरा कलाकारों के अनुसार इसमें निम्न सामग्री की आवश्यकता होती है

  • विभिन्न प्रकार की मिट्टी 
  • कच्ची धातु जैसे जस्ता, कांसा, 
  • मधुमक्खियों से प्राप्त मोम
  • साल के वृक्ष की गोंद आदि

यह शिल्प लॉस्ट वैक्स तकनीक पर आधारित है। लॉस्ट वैक्स तकनीक, धातु ढलाई की एक विधि है। इस मूर्ति के निर्माण में लगभग एक माह का समय लगता है।

  • सर्वप्रथम मोम का एक ठोस मॉडल बनाया जाता है।
  • मॉडल के बाहरी ओर मिट्टी का एक सांचा बनाया जाता है।
  • गर्म धातु को सांचे में प्रवेश कराया जाता है। इस प्रक्रिया के दौरान मोम का सांचा नष्ट हो जाता है।
  • मूर्ति को प्राप्त करने के लिए ठण्डा होने पर मिट्टी के सांचे को तोड़ा जाता है। प्राप्त मूर्ति की फिनिशिंग व फाइलिंग की जाती है।धातु की मूर्ति या संरचना तैयार हो जाती है। 
  • घड़़वा या ढोकरा शैली में मोम के तारों का प्रयोग विशिष्ट तरीके से किया जाता है जो संरचनाओं को आलंकारिक तत्व प्रदान करती है। 

 लॉस्ट वैक्स तकनीक का भारतीय इतिहास

  • भारतीय इतिहास में लगभग 5000 वर्ष पूर्व से यह तकनीक प्रचलित है, जिसका साक्ष्य मोहनजोदड़ो के कांस्य की नर्तकी की मूर्ति से मिला है। 
  • दक्षिण भारत की चोल शैली की मूर्तिकला में इसी पद्धति का प्रयोग किया जाता था जिनका शासन काल 850 से 1250 ई. तक रहा।
  • इतिहास में इन मूर्तियों को अधिकतर कांसे से निर्मित किया जाता था। 
  • इतिहास में इस प्रकार की मूर्तियाँ देवी देवताओं व मानव संरचनाओं पर अधिकतर आधारित थी।
  • ढोकरा या घड़वा शैली की मूर्तियाँ देवी देवताओं, सामाजिक तौर पर मानव की संरचनाओं, पशु पक्षियों की संरचनाओं पर आधारित है।
  • वर्तमान में विभिन्न प्रकार की अलंकारिक व प्रायोगिक वस्तुओं को इस तकनीक के माध्यम से बनाया जाता है। 

ढोकरा या घड़वा धातुशिल्प कला की वर्तमान दशा-

  • आधुनिक मशीनीकरण के दौर में भी इस कला के कलाकार कम अवश्य हुए हैं लेकिन इसे आदिवासी स्वयं बनाते हैं।
  • चमकदार पॉलिश का प्रयोग इसमें नहीं किया जाता है, इसकी विशेषता धातु में की गई बारीक कलाकृति है।
  • 1988 में छत्तीसगढ़ हैंडीक्राफ्ट डेवलपमेंट बोर्ड की स्थापन कर डोकरा समेत अन्य हस्तशिल्प के संरक्षण का प्रयास किया गया।
  • वर्ष 2018 में आदिलाबाद के डोकरा शिल्प को GI टैग प्राप्त हुआ है।
  • इसके साथ जनजातीय अनुसंधान संस्थानों को सहायता नामक योजना भी देश मेंसंचालित है जिसके द्वारा आदिवासी सांस्कृतिक विरासतों का संरक्षण किया जाएगा।

चुनौतियाँ-

  • पारंपरिक तरीकों से बनी मूर्ति में अधिक समय लगता है।
  • पारंपरिक निर्माण हेतु सामग्री जैसे मधुमक्खियों से प्राप्त मोम की उपलब्धता एक बड़ी चुनौती है ।
  • पारंपरिक मूर्तियों का प्रयोग नहीं किया जा रहा है, जिसमें समुदाय सिद्धहस्त थे, इनके स्थान पर अन्य कार्यात्मक वस्तुओं का निर्माण होने लगा है।

स्रोत

द हिन्दू

साहापीडिया

आर्टिसेरा

Yojna IAS Daily current affairs hindi med 23rd december

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