फड़ चित्रकला

फड़ चित्रकला

फड़ चित्रकला

संदर्भ- हाल ही में देश के दर्जनों स्कूलों में बच्चों ने पाठ्य सामग्री को समझने के लिए प्राचीन माध्यमों को चुना है। राजस्थान की फड़ चित्रकला पुरातन कला को सहेजने के साथ प्राथमिक शिक्षा में भी अपनी भूमिका निभा रही है। 

फड़ चित्रकला – 

  • फड़ चित्रकला राजस्थान के भीलवाड़ा की स्थानीय लोककला है। फड़ नामक कपड़े में लोककथाओं को चित्रित कर इन्हें गाया जाता है। 
  • 1639 में शाहजहाँ के शासन काल में राजाज सुजान सिंह के द्वारा शाहपुरा शहर बसाया गया। कहा जाता है सुजान सिंह द्वारा पुर गाँव से पाँचाजी जोशी नामक चित्रकार को शाहपुरा में बुलाया गया। तब से ही शाहपुरा में फड़ चित्रकला का प्रारंभ हुआ। 
  • इसमें स्थानीय देवी देवताओं और महान नायकों से संबंधित कथाओं को चित्रित किया जाता है।  
  • फड़ चित्र की छपाई व रंगाई का कार्य छीपा समुदाय के जोशी द्वारा किया जाता है।
  • फड़चित्र कथाओं के गायन का आयोजन चैत्र नवरात्रि व भाद्रपद मास की नवमी व दशमी को अवश्य किया जाता है। भोपा फड़ को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाने के लिए बांस के ढांचे का प्रयोग करते हैं। इसे किसी भी स्थान पर चित्रित दीवार की तरह रखा जाता था और मंदिर के देवता के समान पूजा की जाती थी। इस प्रकार यह एक चलता फिरता मंदिर प्रतीत होता है।
  • चौमासा में फड़ की पूजा नहीं की जाती, कहा जाता है कि वर्षा ऋतु के चार महीनों में देवता सो जाते हैं। पूजा न करने के दौरान फड़ को किसी मंदिर अथवा भोपा के घर में रखा जाता है।

चित्रकला हेतु सामग्री

  • पट्ट- फड़ के लिए 30 फीट लम्बा और 5 फीट चौड़ा हस्तनिर्मित रेजा कपड़े का प्रयोग होता था। इसमें उबलते चावल के माड़ व गोंद को मिलाकर स्टार्च बनाया जाता है। फिर इसे मोहरा (एक विशेष पत्थर के उपकरण) से रगड़ा जाता है। इससे कपड़े में रंग पकड़ने की वैधता बढ़ जाती है। वर्तमान में मिल का सूती, रेशम व सिल्क कपड़े का प्रयोग होने लगा है।
  • पेंट- विभिन्न पौंधों व खनिजों से प्राप्त प्राकृतिक रंगों में गोंद व पानी मिलाकर पेंट बनाया जाता था। रंगों को पक्का करने के लिए इसमें खेंजड़ी नामक वृक्ष के गोंद का प्रयोग किया जाता था।

फड़ चित्रकला शैली

  • यह पारंपरिक स्क्रॉल पेंटिंग है। जिसमें स्थानीय देवी देवताओं का निर्माण किया जाता है।
  •  देवी देवताओं के चेहरे के पार्श्व भाग को दर्शाया जाता है, मानो वह एक दूसरे से बात कर रहे हों। 
  • चित्र में देवताओं की आँखों का निर्माण अंत में किया जाता है, कलाकारों में यह मान्यता है कि चित्र निर्माण के दौरान आँखों के द्वारा देवता जागृत हो सकते हैं। जागृत देवता की पेंटिंग के ऊपर कलाकार बैठ नहीं सकता।
  • इसकी कलाकृतियों में चटक रंगों जैसे लाल, नारंगी, काले व गहरे हरे का प्रयोग किया जाता है।
  • पट्ट के किनारों को ठप्पों की सहायता से बनाया जाता है। 

फड़ संगीतकला व साहित्य 

  • फड़ स्वयं में एक सार्वभौमिक कला है। जिसमें चित्रकला, साहित्य व संगीत शामिल हैं। फड़ में चित्रित स्थानीय नायकों जैेसे- देवनारायण, रामदेवजी पाबूजी, रामदला, कृष्णदला, माताजी आदि की पूजा करने के साथ इनकी कथा को गा कर सुनाया जाता है और यह कार्य स्थानीय पुजारी द्वारा किया जाता है। 
  • स्थानीय देवता, देवनारायण को विष्णु का अवतार माना जाता है। इनकी कथा सुनाने वाले भोपा, गुज्जर समुदाय से संबंधित हैं। देवनारायण की कथा के साथ जंतर नामक वाद्ययंत्र को बजाया जाता था। इसमें रावणहत्था नामक वाद्ययंत्र को बजाने का भी प्रचलन है जिसे भोपा समुदाय द्वारा स्वयं निर्मित किया जाता है। 
  • पाबूजी देवता को लक्ष्मण का अवतार माना जाता है। इनकी कथा सुनाने वाले राजपूत अथवा अन्य समुदाय के हो सकते हैं। इन्हें रेबारी अथवा राइंका, स्थानीय ऊँट पालक समुदाय द्वारा पूजा जाता है। मान्यता है कि राजस्थान में सर्वप्रथम पाबूजी ने ही ऊँट लाकर पालना प्रारंभ किया था। पाबूजी की कथा गायन में दो तारवाले वाद्य यंत्रों का प्रयोग होता था। 
  • फड़ गायन के लिए कहरवा ताल के कई रूपों का प्रयोग किया जाता है जैसे कहरवा द्रुत लय, कहरवा अति विलंबित लय, कहरवा ताल मध्य लय, कहरवा मध्य लय आदि। पड़ गायन राजस्थानी बोली में किया जाता है, किंतु स्थान परिवर्तन के साथ राजस्थान के स्थानीय बंलियों का प्रभाव दिखाई देता है।

भारत में फड़ चित्रकला से मिलती जुलती अन्य परंपरा भी हैं जैसे – बंगाल में इसे पट्टदेखाबा, संथाल परगना में जादुपटुआ, राजस्थान में फड़ और महाराष्ट्र में इसे चित्रकथी कहा जाता है। बंगाल व उड़ीसा की पट्टचित्र, फड़ परंपरा से मिलती जुलती प्राचीन परंपरा है। पट्ट चित्रकला में प्रयुक्त कपड़ा पतले कॉटन का होता है जिसे फोल्ड कर निर्मित किया जाता है जबकि फड़ चित्रकला मोटे रेजा कपड़े पर बनाया जाता है, इसे फोल्ड करने की आवश्यकता नहीं होती। प्रत्येक परंपरा की कथाएं हिंदू धर्म व स्थानीय लोककथाओं से प्रेरित होती हैं। 

वर्तमान स्थिति – फड़चित्र समारोह अब संस्कृति बचाने के लिए कुछ कार्यक्रमों में देखे जा सकते हैं। सामाजिक जीवन में इनका महत्व समाप्त होता नजर आ रहा है। फड़ चित्रकारों की वर्तमान पीढ़ी इसे व्यवसाय के रूप में नहीं अपना रही है। चित्रों के डिजिटल रूप के कारण चित्रकारों की स्थिति सम्मानपूर्वक नहीं है। वर्तमान में इसे वॉल पेंटिंग की तरह प्रयोग किया जा रहा है। 

फड़ चित्रों को बचाने का प्रमुख प्रयास स्वर्गीय श्री लाल जोशी ने किया था। जिसके लिए भारत सरकार द्वारा उन्हें पद्म श्री पुरस्कार से नवाजा गया था। उन्होंने राजस्थान के भीलवाड़ा में जोशी बाला कुंज की स्थापना की और लगभग 3000 लोगों को इस कला में प्रशिक्षित किया।

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