भारत में असहिष्णुता बनाम बहुलवादी नागरिक समाज का मार्ग

भारत में असहिष्णुता बनाम बहुलवादी नागरिक समाज का मार्ग

स्त्रोत –  द हिन्दू एवं पीआईबी। 

सामान्य अध्ययन –  भारत की राजव्यवस्था एवं शासन , राज्य के नीति – निर्देशक सिद्धांत (DPSP), भारतीय संविधान की उद्देशिका/  प्रस्तावना,  पहचान एवं नागरिकता, सुशासन , राज्य का बहुलवादी सिद्धांत।

खबरों में क्यों ?

  • हाल ही में भारत की नई संसद भवन के उद्घाटन सत्र के दौरान, संसद – सदस्यों ( सांसदों ) को भारतीय संविधान की प्रतियां उपहार में दिए जाने के बाद विवाद खड़ा हो गया, क्योंकि उपहार में दी गई भारतीय संविधान की प्रतियों की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘धर्मनिरपेक्ष’ शब्दों को हटा दिया गया था।
  • इसके बाद पूरे भारत के नागरिक समाज में  इस बात पर बहस केंद्रित हो गई कि क्या इनमें से कोई भी शब्द भारत के संविधान की सच्ची भावना को परिभाषित करता है? 
  • भारतीय संविधान की उद्देशिका / प्रस्तावना के शुरुआती शब्दों का अर्थ ही है कि – ‘ हम भारत के लोग ‘

भारतीय संविधान की उद्देशिका/ प्रस्तावना : 

“हम, भारत के लोग, भारत को एक संपूर्ण प्रभुत्व संपन्न, समाजवादी , पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए, तथा उसके समस्त नागरिकों को:

सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, श्रद्धा और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता, प्राप्त कराने के लिए,
तथा उन सब में,
व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित कराने वाली, बन्धुता बढ़ाने के लिए,
दृढ़ संकल्पित होकर अपनी संविधानसभा में आज तारीख 26 नवम्बर 1949 ई॰ (मिति मार्गशीर्ष शुक्ल सप्तमी, संवत दो हजार छह विक्रमी) को एतद् द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।

भारतीय संविधान की उद्देशिका/ प्रस्तावना में निहित मुख्य शब्द 

मुख्य शब्दावली  – अर्थ

सार्वभौमसार्वभौम।

समाजवादी  – लोकतांत्रिक समाजवाद जहां निजी क्षेत्र और सरकारी क्षेत्र एक साथ काम कर सकते हैं।

धर्मनिरपेक्षप्रगतिशील धर्मनिरपेक्षता।

लोकतांत्रिकसर्वोच्च शक्ति लोगों के पास रहती है।

गणतंत्रराज्य / देश का मुखिया या अध्यक्ष चुना जाता है।

न्याय सामाजिक-  आर्थिक और राजनीतिक स्तर पर लोगों के साथ व्यवहार में निष्पक्षता।

स्वतंत्रताविचार, विश्वास, आस्था और पूजा की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता ।

समानताअवसर की समानता अर्थात राज्य अपने नागरिकों के साथ भाषा , लिंग , धर्म आदि के आधार पर कोई भेदभाव नहीं करेगा। 

बन्धुत्वदेश की एकता और अखंडता के साथ आपस में भाईचारा

  • भारत पर किसी भी बाहरी शक्ति का प्रभुत्व नहीं है और राज्य के पास अपनी स्वतंत्र सत्ता है, इसका सीधा मतलब यह है कि भारत के नागरिकों के पास राज्य के प्रमुखों और अन्य प्रतिनिधियों को चुनने की शक्ति है और उनकी आलोचना करने की भी शक्ति है।
  • भारत के संविधान की प्रस्तावना में भारत के राज्य की प्रकृति बताई गई है।  वे हैं – समाजवादी, संप्रभु, धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक, गणराज्य।
  • संविधान की प्रस्तावना में स्वतंत्रता, न्याय, बंधुत्व और समानता जैसे उद्देश्य भी शामिल हैं।  संविधान निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले संविधान सभा के अध्यक्ष सर अल्लादी कृष्णस्वामी अय्यर के शब्दों में, संविधान की प्रस्तावना हमारे दीर्घकालिक सपनों का विचार है ।
  • संविधान सभा की प्रारूप समिति के सदस्य के. एम. मुंशी ने प्रस्तावना को ‘हमारी संप्रभु लोकतांत्रिक गणराज्य का भविष्यफल’ बताया । इसी प्रकार संविधान सभा के एक अन्य सदस्य पंडित ठाकुर दास भार्गव ने संविधान की प्रस्तावना को “संविधान की आत्मा कहा । 

राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत (DPSP) : 

संवैधानिक प्रावधान:

  • भारत के संविधान के भाग IV (अनुच्छेद 36-51) में DPSP शामिल है।
  • भारतीय संविधान का अनुच्छेद 37 निर्देशक सिद्धांतों के प्रावधानों के बारे में बताता है।

पृष्ठभूमि:

  • भारतीय संविधान में निहित निर्देशक सिद्धांत आयरलैंड के संविधान से लिये गए हैं। गौरतलब यह है कि आयरलैंड ने स्वयं ही यह सिद्धांत स्पेन के संविधान से लिया था।
  • ऐसे विचार को मानव अधिकारों की घोषणा और अमेरिकी उपनिवेशों द्वारा स्वतंत्रता की घोषणाओं के साथ-साथ सर्वोदय की गांधीवादी अवधारणा में देखा जा सकता है।
  • भारत में भारत सरकार अधिनियम 1935 में इसी तरह के दिशा-निर्देश प्रदान किये गए थे।

सुशासन : 

  • सुशासन का तात्पर्य जनता के प्रति उत्तरदायी एक अच्छी शासन व्यवस्था  से है। व्यवहार में  इसका संबंध उन सभी प्रक्रियाओं से है; जिनके द्वारा  समाज में ऐसे वातावरण का निर्माण  किया जाता है जिसमें सभी व्यक्तियों को उनकी क्षमता के अनुरूप उत्कृष्टता की ओर बढ़ने का मौका मिले।
  • योजना आयोग तथा विश्व बैंक जैसी संस्थाओं द्वारा सुशासन की विशेषताओं को स्पष्ट किया गया है। 

सुशासन की मुख्य विशेषताओं को निम्नलिखित रूप में देखा जा सकता है-

  • स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव और सत्ता का लोकतांत्रिक हस्तांतरण।
  • सरकारी संस्थाओं की जवाबदेहिता तथा पारदर्शिता।
  • सत्ता का विकेंद्रीकरण तथा प्रशासन में जनता की भागीदारी।
  • सामाजिक-आर्थिक सेवाओं की समयबद्ध उपलब्धता।
  • प्रशासन की मितव्ययता तथा कार्यकुशलता।
  • प्रशासन में नैतिकता।
  • विधि के शासन की स्थापना।
  • समाज के वंचित वर्गों के हितों का संवर्धन।
  • पर्यावरण की दृष्टि से धारणीय विकास पर बल ।
  • नागरिक समाज का तात्पर्य  सरकार तथा व्यावसायिक संगठनों से इतर ऐसे सामाजिक संगठनों से है जो स्वेच्छा तथा सामाजिक कल्याण की भावना से जनता की सेवा करते हैं। गैर सरकारी संगठन, उपभोक्ता संगठन, पर्यावरणीय समूह तथा सामाजिक उद्देश्य से निर्मित सहकारी संगठन नागरिक समाज के उदाहरण है।
  • वर्तमान में एक लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा को लागू करने में इनकी भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। ये संगठन जनता से जुड़कर जनता की वास्तविक इच्छा को सरकार के सामने रखते हैं और शासन में जनभागीदारी को बढ़ावा  देकर सुशासन की अवधारणा को लागू करते हैं। पारदर्शिता की दिशा में मील का पत्थर माने जाने वाला सूचना का अधिकार कानून, सिविल सोसाइटी के सूचना अधिकार आंदोलन का ही परिणाम है। इसके अलावा प्रसिद्ध लोकपाल बिल को पारित किये जाने में भी अन्ना हजारे के नेतृत्व में सिविल सोसाइटी ने अहम योगदान दिया है। ये जनता को सरकारी नीतियों, कार्यक्रम और कमियों से परिचित करा कर शासन में जवाबदेहिता को भी बढ़ाते हैं। नैतिक रुझानों से प्रतिबद्ध होने के कारण कई निःस्वार्थ संगठन प्रशासन में नैतिक मूल्यों की स्थापना भी करते हैं। इसके अलावा गैर-सरकारी संगठन के रूप में सरकार की कई योजनाओं का कुशल – क्रियान्वयन कर ये प्रशासन की गुणवत्ता भी बढ़ाते हैं। 
  • जैसे – बेटी बचाओ – बेटी पढाओ या आयुष्मान भारत योजना या नारी शक्ति वंदन योजना का सफलतापूर्वक क्रियान्वयन सुशासन का उत्कृष्ट उदहारण है ।
  • भारत में सुशासन में नागरिक समाज की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।

बहुलतावादी सिद्धांत  : 

  • बहुलवादी समाज एक ऐसा समाज है जहां अद्वितीय विचारधाराओं और मूल्यों वाले कई समूह सरकारी नीतियों को प्रभावित करने के लिए सहयोगात्मक रूप से काम करते हैं और शासन प्रक्रिया में सक्रिय होते हैं। बहुलवादी समाज में समूह संस्कृति, धर्म या सामान्य विचारधाराओं और मूल्यों द्वारा निर्धारित किए जा सकते हैं।
  • संप्रभुता की एकलवादी धारणा के विरुद्ध जिस विचारधारा का उदय हुआ, उसे हम राजनीतिक बहुलवाद या बहुसमुदायवाद कहते हैं। इस प्रकार बहुलवाद को संप्रभुता की अद्वैतवादी धारणा के विरुद्ध एक ऐसी प्रतिक्रिया कहा जा सकता है जो यद्यपि राज्य के अस्तित्व को बनाये रखना चाहती है, किन्तु राज्य की संप्रभुता का अंत करना आवश्यक मानती है।
  • बहुलवादी विचारधारा के अनुसार राजसत्ता सम्प्रभु और निरंकुश नहीं है। समाज में विद्यमान अन्य अनेक समुदायों का अस्तित्व राजसत्ता को सीमित कर देता है। व्यक्ति अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए केवल राज्य की ही सदस्यता स्वीकार नहीं करता, वरन् राज्य के साथ-साथ दूसरे अनेक समुदायों और संघों की सदस्यता भी स्वीकार करता है। ऐसी स्थिति में एकमात्र राज्य को सम्पूर्ण सत्ता प्रदान नहीं की जा सकती है। प्रसिद्द विद्वान हेसियो (Hasio) ने इस सम्बन्ध में लिखा है कि –  “बहुलवादी राज्य एक ऐसा राज्य है, जिसमें सत्ता का केवल एक ही स्रोत नहीं है, यह विभिन्न क्षेत्रों में विभाजनीय है और इसे विभाजित किया जाना चाहिए।”

प्रमुख बहुलवादी विचारक : 

  • अनेक लेखकों और विचारकों द्वारा बहुलवादी विचारधारा का प्रतिपादन किया गया है, जिनमें गियर्क, मैटलैण्ड, फिगिस, डिग्विट, क्रेव, पाल बंकर, ए. डी. लिण्डले, डरखैम, मिस फॉलेट, अर्नेस्ट बार्कर, जी. डी. एच. कोल और हैराल्ड लास्की का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है।

बहुलवाद की प्रमुख मान्यताएं (सिद्धांत) : 

  • राज्य केवल एक समुदाय है : बहुलवादी राज्य को सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान तथा नैतिक संस्था के रूप में स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार समाज की वर्तमान स्थिति और रचना के आधार पर राज्य अन्य समुदायों की भाँति ही एक समुदाय के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। मानवीय जीवन की आवश्यकताएँ बहुमुखी होती हैं और राज्य मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर सकता। इसी के कारण राज्य के अतिरिक्त अन्य समुदायों का भी उपयोगी अस्तित्व है। राज्य का कार्य मुख्यतया जीवन के राजनीतिक पहलू से सम्बन्धित है और बहुलवादियों के अनुसार उसे अपने ही क्षेत्र तक सीमित रहना चाहिए, जिससे अन्य समुदाय स्वतन्त्र रूप से व्यक्ति के जीवन के सभी पहलुओं का यथेष्ठ विकास कर सकें।
  • बहुलवादी राज्य और समाज में अन्तर करते हैं : आदर्शवादियों की भाँति बहुलवादी राज्य और समाज को एक नहीं मानते हैं वरन् उन्हें विभिन्न इकाइयों के रूप में स्वीकार करते हैं। बहुलवाद राज्य को अन्य समुदायों के समान ही एक समुदाय मानता है और समाज को राज्य की तुलना में बहुत अधिक व्यापक संगठन बताता है। राज्य समाज का एक ऐसा अंगमात्र है जो उद्देश्य और कार्यक्षेत्र की दृष्टि से समाज का सहगामी नहीं हो सकता।
  • बहुलवादी नियंत्रित राजसत्ता में विश्वास करते हैं : बहुलवाद असीमित सम्प्रभुता का खण्डन करता है और आन्तरिक व बाह्य दोनों ही क्षेत्रों में सम्प्रभुता को सीमित मानता है। आन्तरिक क्षेत्र में राज्य की शक्ति स्वयं अपनी प्रकृति तथा नागरिकों एवं समुदायों के अधिकारों से सीमित होती है तथा बाहरी क्षेत्र में राज्य की शक्ति अन्तर्राष्ट्रीय कानून तथा अन्य राष्ट्रों के अधिकारों से सीमित है। इस प्रकार बहुलवाद आन्तरिक और बाहरी दोनों ही क्षेत्रों में राज्य की निरंकुश शक्ति का विरोधी है।
  • बहुलवाद के अनुसार कानून राज्य से स्वतंत्र और उच्च है : बहुलवादी सम्प्रभुता के परम्परागत प्रतिपादकों के विपरीत कानून को राज्य से स्वतन्त्र और उच्च मानते हैं। इस सम्बन्ध में फ्रांसीसी विचारक डिग्विट और डच विचारक क्रैव के विचार उल्लेखनीय हैं। डिग्विट (Dugvit) के अनुसार, ‘विधि राजनीतिक संगठन से स्वतन्त्र, उससे श्रेष्ठ और पूर्वकालिक होती है। विधि के बिना सामाजिक एकता या संगठन या मनुष्यों का एक-दूसरे पर निर्भर करना सम्भव नहीं है। राज्य का व्यक्तित्व एक निरी कल्पना मात्र है। विधि राज्य को सीमित करती है, राज्य विधि को सीमित नहीं करता।’ क्रैब ने भी इसी प्रकार के विचार व्यक्त किए हैं।
  • बहुलवाद विकेन्द्रीकरण में विश्वास करता है : बहुलवाद आदर्शवादी दर्शन की भाँति केन्द्रित राज्य में विश्वास नहीं करता है वरन् यह विकेन्द्रीकरण को ही राज्य की वास्तविक उपयोगिता का आधार मानता है। बहुलवाद के अनुसार, स्थानीय समस्याएँ भी कम महत्वपूर्ण नहीं है और इन स्थानीय समस्याओं का समाधान शक्ति के केन्द्रीकरण की पद्धति से नहीं किया जा सकता है। बहुलवादियों के विचार से राज्य को चाहिए कि अपनी केन्द्रित सत्ता को व्यावसायिक प्रतिनिधित्व की प्रणाली के आधार पर विकेन्द्रित करके अन्य समुदायों में विभाजित कर दे और इस प्रकार एक संघात्मक सामाजिक संगठन की स्थापना की जाये।
  • बहुलवाद राज्य के अस्तित्व का विरोधी नहीं है : बहुलवादी राज्य की निरंकुश सत्ता का विरोध तो करते हैं, किन्तु अराजकतावाद या साम्यवाद की भाँति वे उसको समूल नष्ट करने के पक्ष में नहीं हैं। राष्ट्र का अन्त करने के स्थान पर ये राज्य की शक्तियों को सीमित करना चाहते हैं। बहुलवादियों के अनुसार सम्प्रभुता का अद्वैतवादी(एकलवाद) सिद्धान्त ‘कोरी मूर्खता’ के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। एक बहुलवादी समाज के राज्य का स्वरूप तथा महत्व वैसा ही होगा, जैसा कि अन्य संघों तथा संस्थाओं का। बहुलवादी अन्य संघों की अपेक्षा राज्य को प्राथमिकता देने के लिए तो तैयार हैं, क्योंकि राज्य के द्वारा संघों के पारस्परिक विवाद को सुलझाने के लिए मध्यस्थ के रूप में कार्य किया जायेगा, किन्तु वे राज्य को उस उग्र तथा निरंकुश रूप में स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, जिसका प्रतिपादन ‘एकलवादी विचारकों’ के द्वारा किया गया है।
  • बहुलवाद एक जनत्तंत्रात्मक विचारधारा है : बहुलवाद राज्य के वर्तमान रूप का विरोधी होने पर भी जनत्तंत्रात्मक प्रणाली का विरोधी नहीं है। बहुलवाद अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कभी भी हिंसात्मक प्रणाली का प्रयोग स्वीकार नहीं करता है। आरम्भ से लेकर अन्त तक उसका विश्वास व्यावसायिक प्रतिनिधित्व तथा गुप्त मतदान में है। वास्तव में, बहुलवाद का उद्देश्य तो सर्वाधिकारवादी राज्य के स्थान पर एक ऐसे जनत्तंत्रात्मक राज्य की स्थापना करना है, जिसमें शासन व्यवस्था का संगठन नीचे से ऊपर की ओर हो। प्रभुसत्ता के अन्य संघों में समान वितरण को वे जनत्तंत्रात्मक प्रणाली का प्रतीक मानते हैं।
  • बहुलवाद व्यावसायिक प्रतिनिधित्व में विश्वास करता है : बहुलवादी विचारक जी. डी. एच. कोल प्रजातंत्र में व्यावसायिक प्रतिनिधित्व के सिद्धान्त का विशेष समर्थक हैं। बहुलवादी प्रादेशिक प्रतिनिधित्व की पद्धति को अनुचित और दोषपूर्ण मानते हैं, क्योंकि क्षेत्र के आधार पर चुने गये व्यक्ति वास्तविक रूप में प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। ऐसी स्थिति में प्रतिनिधित्व की यही पद्धति उचित कही जा सकती है, जिसका आधार व्यवसाय हो। एक कृषक के हित का प्रतिनिधित्व उसके पास रहने वाला वकील अच्छे प्रकार से नहीं कर सकता जितना कि दूर स्थित क्षेत्र का निवासी एक कृषक, जो उसकी कठिनाइयों को समझता है। इसी कारण बहुलवादियों के अनुसार चुनाव क्षेत्र व्यवसाय के आधार पर ही निश्चित किए  जाने चाहिए।

बहुलवाद की आलोचना : 

  • बहुलवाद का तार्किक निष्कर्ष अराजकता है : बहुलवाद के विरुद्ध आलोचना का सबसे प्रमुख आधार यह है कि बहुलवादी विचारधारा को स्वीकार करने का स्वाभाविक परिणाम अराजकता की स्थिति होगा। यदि प्रत्येक समुदाय को राज्य के समान मान लिया जाये और उन्हें सम्प्रभुता का आनुपातिक अधिकार भी समर्पित कर दिया जाये तो समाज में कानूनविहीन स्थिति उत्पन्न हो जायगी। बहुलवादी विचारक भी इस तथ्य से परिचित हैं। इसी कारण सम्प्रभुता का समुदायों में विभाजन करने के बाद भी बहुलवाद राज्य को समाज के विभिन्न समुदायों में समन्वय और सामंजस्य स्थापित करने की शक्ति प्रदान करता है, किन्तु राज्य के द्वारा उस समय तक इस प्रकार का कार्य नहीं किया जा सकता जब तक कि उसे वैधानिक दृष्टि से सर्वोच्च स्थिति प्राप्त न हो।
  • बहुलवाद कतिपय भ्रामक धारणाओं पर आधारित है : बहुलवाद कुछ मिथ्या धारणाओं पर आधारित है। यह समझना गलत है कि प्रत्येक समुदाय का कार्यक्षेत्र एक-दूसरे से सर्वथा पृथक् होता है और मानवीय कार्यों को ऐसे विभागों में विभक्त किया जा सकता है जिनका कि एक-दूसरे के साथ कोई सम्बन्ध न हो। समाज के वर्तमान संगठन में विभिन्न हितों और आस्थाओं का पारम्परिक संघर्ष नितान्त स्वाभाविक है। ऐसी स्थिति में, यदि समाज में कोई अंतिम वैधानिक सत्ता न हो तो विभिन्न समुदायों के पारस्परिक संघर्ष के कारण एक अस्वस्थ वातावरण उत्पन्न हो जायगा, जिसमें मानवीय प्रगति लगभग असम्भव ही हो जायेगी। अतः बहुलवादियों का यह समझना असत्य है कि प्रत्येक समुदाय बिना किसी संघर्ष के अपने कर्तव्यों को निभाता रहेगा।
  • सभी समुदाय समान स्तर के नहीं हैं : बहुलवादी विचारधारा के विरुद्ध एक महत्वपूर्ण तर्क यह है कि इस विचारधारा में समाज के सभी समुदायों को समान स्तर का मान लिया गया है। प्रत्येक समुदाय को राज्य के समान मान लेना बहुलवादियों की एक भारी भूल है। वास्तव में, राज्य संस्था के अपने विशेष कार्यों के कारण उसकी स्थिति अन्य सभी समुदायों से भिन्न और विशेष होती है।
  • बहुलवाद प्रभुत्व के काल्पनिक अद्वैतवादी शत्रु पर आक्रमण करता है : बहुलवाद की आलोचना का एक आधार यह भी है कि बहुलवाद जिस निरंकुश प्रभुसत्ता पर आक्रमण करता है, उसका प्रतिपादन हीगल को छोड़कर राज्य सत्ता के अन्य किसी भी समर्थक द्वारा नहीं किया गया है। बोदां, हॉब्स, रूसो, ऑस्टिन आदि सभी विचारक राज्य की सम्प्रभुता पर प्राकृतिक, नैतिक या व्यावहारिक कुछ-न-कुछ नियन्त्रण अवश्य ही स्वीकार करते हैं। उनके कथन का सारांश केवल यही है कि सम्प्रभुता अपने सदृश अन्य किसी शक्ति का अस्तित्व सहन नहीं कर सकती और यह एक अकाट्य सत्य है।
  • बहुलवाद अन्तरविरोधों से भरा है : बहुलवाद के विरुद्ध एक गम्भीर बात यह है कि बहुलवादी विचारधारा अन्तर्विरोधों से भरी पड़ी है। बहुलवादी सैद्धान्तिक रूप से तो राज्य की शक्तियों को कम करके उसे अन्य समुदायों के साथ समता प्रदान करते हैं, किन्तु जब वे व्यवहार पर आते हैं तो यह स्वीकार करते हैं कि किसी एक संस्था को सम्प्रभु बनाये बिना राजनीतिक समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। इस प्रकार वे परोक्ष रूप में राजकीय सम्प्रभुता को स्वीकार कर लेते हैं, यह बात सभी बहुलवादी विचारकों में देखी जा सकती है।
  • बहुलवादी व्यवस्था में व्यक्ति स्वतंत्र नहीं होगा : बहुलवादियों की यह भ्रान्ति है कि अन्य समुदायों पर से राज्य का नियन्त्रण हटा लेने पर व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व के विकास हेतु स्वतन्त्रता का वातावरण उपलब्ध होगा, वस्तुतः ऐसी बात नहीं है। जो लोग समुदायों की स्वतन्त्रता के नाम पर राज्य के नियन्त्रण का विरोध करते हैं, वे अपने हाथ में सत्ता आने पर व्यक्ति के अधिकारों का हनन करने में राज्य से भी आगे बढ़ सकते हैं। मध्य युग में चर्च ने अपने से भिन्न मत रखने वाले व्यक्तियों का भीषण दमन किया था, और ब्रेनी तथा गैलीलियो को अपने ही देशवासियों के हाथों भीषण यातनाएँ सहन करनी पड़ी थीं।
  • राज्य संघों का संघ नहीं हो सकता : आलोचकों द्वारा लिण्डसे, बार्कर और अन्य बहुलवादियों के इस कथन की कटु आलोचना की गयी है कि राज्य समुदायों का एक समुदाय है। राज्य और अन्य समुदायों की स्थिति में आधारभूत अंतर है। जबकि अन्य समुदायों का सम्बन्ध मनुष्य के किसी विशेष हित के साथ होता है, जबकि राज्य का सम्बन्ध उनके सर्वमान्य या व्यापक हितों के साथ होता है। इसी कारण राज्य के अतिरिक्त अन्य कोई समुदाय मनुष्य के पूर्ण व्यक्तित्व का प्रतीक होने का दावा नहीं कर सकता।
  • बहुलवाद देशभक्ति विरोधी है : प्रभुसत्ता तथा राज्य के महत्व को कम करने तथा अपनी विचारधारा में अन्तर्राष्ट्रीय होने के कारण बहुलवाद नागरिकों की देशभक्ति की भावना का विरोध करता है, जिसे उचित और व्यावहारिक नहीं कहा जा सकता। राज्यसत्ता के विरुद्ध चाहे कुछ भी क्यों न कहा जाये और चाहे अन्तर्राष्ट्रीय विचारों का कितना ही महत्व माना जाये, इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि वर्तमान समय के राज्यों में देशभक्ति का अपना स्थान और महत्व है।

बहुलवाद का महत्व : 

  • राजसत्ता के खण्डित स्वरूप तथा संघों के महत्व का एक अतिरंजित चित्र प्रस्तुत करने पर भी बहुलवादी दर्शन में सत्य का बहुत कुछ अंश है। गैटिल के शब्दों में –  “बहुलवाद कठोर और सैद्धान्तिक विधानवादिता तथा ऑस्टिन के सम्प्रभुता के सिद्धान्त के विरुद्ध एक सामयिक और स्वागत योग्य प्रतिक्रिया है।”
  • बहुलवाद अराजनीतिक संघों के बढ़ते हुए महत्व पर जोर देता है। यह समुदायों के उचित कार्यक्षेत्र में राज्य के हस्तक्षेप के प्रति सचेत करता है और इस बात का प्रतिपादन करता है कि राज्य के द्वारा न केवल इन समुदायों को मान्यता प्रदान की जानी चाहिए वरन् इन समुदायों को अपने कार्यक्षेत्र में बहुत अधिक सीमा तक स्वायत्तता प्रदान की जानी चाहिए। वर्तमान समय में मानव जीवन की बहिर्मुखी आवश्यकताओं को दृष्टि में रखते हुए बहुलवाद के इस विचार को प्रशंसनीय कहा जा सकता है। उचित रूप में बहुलवाद के इस विचार को स्वीकार कर लेने से न केवल व्यक्ति के व्यक्तित्व के विकास में सहायता मिलेगी वरन् राज्य की कार्यक्षमता में भी आवश्यक रूप से वृद्धि होगी।
  • भारत में असहिष्णुता पर जारी बहस के बाद भी भारत एक बहुलवादी समाज है और भारतीय संविधान विविधता एवं सभी पंथों और धर्मों का बराबर सम्मान करने वाले धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र की गारंटी सुनिश्चित करता है।
  • वर्ष 2022 में भारत के उपराष्ट्रपति श्री एम. वेंकैया नायडु ने कहा था कि – ” किसी संस्कृति, धर्म या भाषा को नीचा दिखाना भारतीय संस्कृति नहीं है।’ उन्होंने प्रत्येक नागरिक से भारत को कमजोर करने के प्रयासों को विफल करने और एकजुट होने और राष्ट्र के हितों की रक्षा करने की जिम्मेदारी लेने का आह्वान किया।”
  • उपराष्ट्रपति ने इस बात को रेखांकित किया था कि – “ भारत के सभ्यतागत मूल्य सभी संस्कृतियों के प्रति सम्मान और सहिष्णुता सिखाते हैं और छिटपुट घटनाएं भारत के धर्मनिरपेक्ष लोकाचार को कमजोर नहीं कर सकती हैं। अंतर्राष्ट्रीय मंच पर भारत की छवि खराब करने के प्रयासों की निंदा करते हुए श्री नायडु ने दोहराया कि भारत का संसदीय लोकतंत्र और बहुलवादी मूल्य दुनिया के लिए अनुकरणीय मॉडल हैं।” 
  • भारत के लोकतांत्रिक व्यवस्था में बहुलतावादी अवधारणा का उत्कृष्ट उदहारण यह है कि भारत की जनसंख्या लगभग 1 अरब 40 करोड़ है ,  जिसमें 4635 से अधिक समुदाय हैं जिसमें से 78 प्रतिशत न केवल भाषायी एवं सांस्‍कृतिक श्रेणियां हैं अपितु सामाजिक श्रेणियां भी हैं। हमारी आबादी में धार्मिक अल्‍पसंख्‍यकों की आबादी 19.4 प्रतिशत है जिसमें मुसलमानों का प्रतिशत 13.4 प्रतिशत है जो संख्‍या की दृष्टि से लगभग 160 मिलियन है। मानव विविधताएं अनुक्रम एवं स्‍थानीय दोनों रूप में हैं। कानूनी तौर पर हम, संप्रभु लोग वास्‍तव में विखंडित ‘हम’ हैं, जो ऊबाऊ अंतरालों द्वारा बंटे हुए हैं जिसे अभी पाटना है। हमारे लगभग 22 प्रतिशत लोग गरीबी की आधिकारिक रेखा से नीचे रहते हैं तथा हाल के सुधारों के बावजूद कुल मिलाकर हमारी आबादी के लिए स्‍वास्‍थ्‍य एवं शिक्षा के संकेतक वांछित से बहुत नीचे हैं।

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प्रारंभिक परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

Q.1. भारत के संविधान में वर्णित ‘“हम भारत के लोग “ संविधान के किस भाग से लिया गया है ? 

  1.  भारत के संविधान में निहित मौलिक अधिकार से
  2.  भारत के संविधान में वर्णित मौलिक कर्तव्य से
  3. भारत के संविधान के ग्यारहवीं अनुसूची से ।
  4. भारत के संविधान की उद्देशिका / प्रस्तावना से । 

उपरोक्त  विकल्पों  में से कौन सा विकल्प सही है ? 

(A) केवल 1 और 4 

(B) केवल 2 और 3 

(C ) केवल 3 

(D) केवल 4 

उत्तर – (D) 

मुख्य परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

Q.1. किसी भी लोकतांत्रिक राज्य/ राष्ट्र में बहुलतावादी सिद्धांत का क्या महत्व है ? आलोचनात्मक मूल्यांकन कीजिए कि भारत में असहिष्णुता के संदर्भ में बहुलतावादी सिद्धांत किस प्रकार भारत की एकता और अखंडता को संरक्षित करती है ?   

 

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