भारत में पंचायती राज प्रणाली 

भारत में पंचायती राज प्रणाली 

भारत में पंचायती राज प्रणाली 

संदर्भ- भारत में पंचायती राज को मजबूत करने के लिए 73वां संविधान संशोधन 1992 लाया गया था। इसके तहत शासन व्यवस्था के विकेंद्रीकरण को आसान बनाने का प्रयास किया गया था। जो वर्तमान स्थिति में असफल होती दिखाई देती है। जैसे हरियाणा में पंचायती चुनावों के समय पर न होने से यह चर्चा का विषय बना हुआ है।

पंचायती राज व्यवस्था भारत के ग्रामीण क्षेत्रों में स्थानीय स्वशासन की प्रणाली है। यह व्यवस्था भारत में स्थानीय क्षेत्रों तक लोकतंत्र स्थापित करने के लिए लागू की गई थी, किसी शासन को सफलतम लोकतांत्रिक तभी माना जा सकता है जब उसकी शक्तियों का उपयुक्त विकेंद्रीकरण हो। ताकि सत्ता में आम आदमी की भी भागीदारी सुनिश्चित हो। किंतु द हिंदू के अनुसार वर्तमान में पंचायती चुनावों से विजित उम्मीदवार उच्च स्तरीय सरकारों की बोली लगाने वाले एजेंट की भूमिका में ही नजर आ रहे हैं। प्रत्येक 5 साल में होने वाले पंचायती चुनाव में विजित स्थानीय प्रतिनिधियों का उच्च स्तर पर कोई प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा है।

स्वतंत्र भारत में प्रथम बार पंचायती राज व्यवस्था का शुभारंभ जवाहर लाल नेहरू ने राजस्थान के बगधरी गांव में 2 अक्टूबर 1959 को किया था। भारतीय संविधान के अनुच्छेद 40 में राज्यों को ग्राम पंचायतों के गठन के निर्देश दिए गए हैं तथा 1993 में संविधान में 73वां संशोधन 1992 करके पंचायती राज संस्था को संवैधानिक मान्यता दी गई।

1992 का 73वां संविधान संशोधन-

  • अनुच्छेद 40 में केवल ग्राम पंचायतों का जिक्र था और पंचायतों की कोई कार्य योजना निर्धारित नहीं थी, इस प्रकार की कमियों को दूर करने के लिए 73वां संविधान संशोधन लाया गया।
  • संशोधन के तहत एक त्रिस्तरीय ढांचे की व्यवस्था की गई, जिसमें पंचायत के तीन स्तर ग्राम सभा, पंचायत समिति और जिला परिषद शामिल किए गए। संविधान के अनुच्छेद 243 में इन तीनों स्तरों को परिभाषित किया गया है।
  • पंचायत के तीनों स्तरों पर सदस्यों का प्रत्येक 5 वर्ष में नियमित चुनाव।
  • अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए अशोक मेहता समिति की सिफारिश पर जनसंख्या के अनुरूप आरक्षण दिया गया।
  • महिलाओं की स्थिति को मजबूत करने के लिए सदस्यता व अध्यक्षता में एक तिहाई आरक्षण की व्ययवस्ता की गई।
  • अधिनियम के प्रारंभ होने से एक वर्ष की अवधि के अंदर राज्य वित्त आयोग के गठन की व्यवस्था की गई।

पंचायती संस्थाओं के वर्तमान मुद्दे-

1.अनुदानों के हस्तानांतरण पद्धति में कमियाँ

  • स्थानीय सरकारों को हस्तानांतरित धनराशि उनकी बुनियादी आवश्यकताओं के लिए अपर्याप्त है।
  • स्थानीय सरकारों को दिए गए अनुदान की व्यवस्था दृढ़ है, इसके कारण संघ व राज्य से प्राप्त अनिवार्य अनुदान कों प्राप्त करने के लिए कई शर्तों से गुजरना पड़ता है। जिस कारण इस धन का उपयोग बाधित होता है।
  • पंचायती संस्थाओं के पास कर व उपयोगकर्ता शुल्क बढ़ाने के लिए निवेश के रास्ते बहुत कम हैं।
  1. कर्मचारियों की कमी
  • स्थानीय सरकारों के पास बुनियादी काम करने के लिए पर्याप्त कर्मचारी नहीं हैं।
  • अधिकांश कर्मचारियों को उच्च स्तर के विभागों में नियुक्त कर स्थानीय सरकार के साथ प्रतिनियुक्ति पर रखा जाता है। जिससे वह कार्य के प्रति जिम्मेदारी व जवाबदेही महसूस नहीं करते।
  1. अनियमित चुनाव
  • 1992 के संविधान संशोधन में तीनों स्तरों के प्रत्येक 5 वर्ष में चुनाव के निर्देश राज्य सरकारों को दिए गए हैं। लेकिन राज्य नियमित चुनाव प्रणाली को अनियमित चुनाव प्रणाली में बदल दिया है। जैसे- 2005 में गुजरात के अहमदाबाद निगम चुनावों का स्थगन, 2021 से टल रहे हरियाणा पंचायती चुनाव, दो साल से नहीं हो रहे चुनावो के कारण केंद्र ने वित्त आयोग से प्राप्त होने वाले अनुदान को खो दिया।     

प्रणाली में सुधार हेतु सुझाव-

  • स्थानीय सरकारों में वित्त की पहुँच के लिए अतिरिक्त कर संग्रह स्रोतों का निर्माण करना चाहिए।
  • ग्राम सभा में छोटी चर्चा के माध्यम से सभा करनी चाहिए, जिसमे प्रत्येक नागरिक के शामिल होने को सुनिश्चित किया जाए।
  • स्थानीय सरकारों के संगठनात्मक ढांचे में सुधार की आवश्यकता है। जिससे वह भ्रष्टाचारमुक्त व गुणवत्तापूर्ण सेवा प्रदान कर सके।
  • स्ठानीय सरकारों हेतु अलग कर्मचारी युक्त विभाग की नियुक्ति की जानी चाहिए।
  • स्ठानीय सरकारों को कर संग्रह करने के लिए प्रेरित करना चाहिए।

स्रोत-

https://www.thehindu.com/opinion/op-ed/article62109220.ece

https://www.amarujala.com/chandigarh/panchayat-elections-postponed-again-in-haryana?pageId=1

Yojna IAS daily current affairs Hindi med 12th Oct

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