भारत में समान नागरिक संहिता

भारत में समान नागरिक संहिता

भारत में समान नागरिक संहिता-

संदर्भ  केंद्र सरकार ने भारत के नागरिकों का सम्पत्ति व विवाह संबंधी अलग अलग कानूनों का पालन करते हैं जो संविधान का अपमान है जिसके लिए भारतीय संविधान में समान नागरिक संहिता होना चाहिए। सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि यह मुद्दा 22 वे विधि आयोग के समक्ष रखा जाएगा।

भारत की आजादी के कुछ समय बाद से ही देश में समान नागरिक संहिता की मांग होती रही है, किंतु इसका भारत के हिंदु व मुस्लिम सम्प्रदाय से विरोध होता आया है। क्योंकि यह सभी मुसलमानों के साथ हिंदुओं की सामाजिक स्थिति को प्रभावित कर सकता है। 

इस वर्ष 8 जनवरी को केंद्र सरकार ने दिल्ली उच्च न्यायालय में भारत में धर्म व विवाह से संबंधित अलग अलग कानूनों के प्रचलन को भारतीय संविधान का अपमान कहा। केंद्र ने अपने हलफनामे में अनुच्छेद 44 का हवाला दिया जो देश में समान नागरिक संहिता की रक्षा करने की बात करता है।

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 44

  • अनुच्छेद 44, संविधान के नीतिनिदेशक तत्व में से एक है।
  • भारत में समान नागरिक संहिता के विषय में कहा गया है कि “राज्य, भारत के पूरे क्षेत्र में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक संहिता को सुरक्षित करने का प्रयास करेगा।”
  • समान नागरिक संहिता- धर्म या लिंग को ध्यान में रखे बिना प्रत्येक नागरिक के लिए समान कानून।

राज्य के नीति निदेशक तत्व- भारतीय संविधान के अनुच्छेद 36-51  में सरकार के लिए सकारात्मक निर्देश हैं। किंतु ये वाद योग्य नहीं हैं अर्थात इनके हनन होने पर न्यायालय द्वारा इन्हें लागू नहीं कराया जा सकता। 

मौलिक अधिकार व नीति निदेशक तत्वों में अंतर-

मौलिक अधिकार नीति निदेशक तत्व
नकारात्मक क्योंकि वह राज्यों को कुछ कृत्यों पर प्रतिबंध लगाती है। सकारात्मक क्योंकि वह राज्यों को कुछ कार्य करने के लिए प्रेरित करती है।
प्रकृति में न्यायसंगत हैं। न्याय योग्य नहीं हैं।
कानूनी प्रतिबंध  नैतिक प्रतिबंध
कार्यान्वयन के लिए कानून की आवश्यकता नहीं है। कार्यान्वयन के लिए कानून की आवश्यकता है। 

समान नागरिक संहिता के मुद्दे व इतिहास

  • औपनिवेशिक काल के दौरान ब्रिटिश सरकार ने व्यक्तिगत कानूनों के संहिताकरण में समानता पर बल दिया, जिसमें हिंदू व मुसलमानों को अलग रखा गया।
  • 1857 के विद्रोह की घटनाओं से अंग्रेजों को समझ आ गया था कि भारत के सामाजिक व सांस्कृतिक पहलुओं को बदलना उनके लिए हानिकारक सिद्ध हो सकता है।
  • स्वतंत्रता व विभाजन के बाद भारत में साम्प्रदायिक वैमनस्य में बढ़ोतरी के खतरों के कारण इसे नीति निदेशक तत्वों में शामिल किय गया।
  • 2005 में हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लागू किय़ा गया जिसमें 1956 के हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के भेदभावपूर्ण नियमों को हटा दिया गया।

परिवार कानून सुधार पर विधि आयोग- हाल ही में विधि आयोग ने एक परामर्श पत्र जारी करते हुए कहा है कि वर्तमान में समान नागरिक संहिता न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय। आयोग ने निम्न परामर्स दिए हैं-

  • समानता के लिए सांस्कृतिक विविधता से समझौता नहीं किया जा सकता है।
  • एकीकृत राष्ट्र को समान नागरिक संहिता की आवश्यक नहीं होती, मौलिक अधिकारों के साथ विविधता के प्रश्नों को सुलझाने का प्रयास करना चाहिए। जैसे लड़के व लड़कियों की विवाह की न्यूनतम उम्र समान निर्धारित करना।
  • विविधता किसी लोकतंत्र में हमेशा भेदभाव नहीं दिखाता,जैसे धर्म की विविधता में ही धर्मनिरपेक्षता निहित है।

स्रोत

https://bit.ly/3F50qjM(Indian Express)

https://plutusias.com/one-nation-one-law-demand-for-uniform-civil-code/

Yojna IAS Daily current affairs hindi med 21st Oct

 

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