मिजोरम में बांग्लादेश से आने वाले कुकी आदिवासियों के लिए तैयारियां शुरु

मिजोरम में बांग्लादेश से आने वाले कुकी आदिवासियों के लिए तैयारियां शुरु

मिजोरम में बांग्लादेश से आने वाले कुकी आदिवासियों के लिए तैयारियां शुरु

संदर्भ- हाल ही में मिजोरम सरकार ने आधिकारिक रूप से कहा कि मिजोरम, बांग्लादेशी शरणार्थियों के आने की तैयारी कर रहा है। राज्य मंत्री मण्डल ने कुकी चिन मिजो शरणार्थियों को भोजन व आश्रय प्रदान करने की मंजूरी दी है।

शरणार्थी-

  • एक शरणार्थी वह होता है जिसने मानवाधिकारों के हनन व उत्पीड़न होने के भय से अपने देश से पलायन किया है। 
  • उन्हें सुरक्षा का इतना अधिक भय होता है कि उनके देस से पलायन करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं सूझता है।
  • इन्हें अंतर्राष्ट्रीय संरक्षण का अधिकार है।

शरण तलाशने वाला-

  • वह व्यक्ति जो अपने देश में नहीं है, अन्य देश में अपने मानवाधिकारों व उत्पीड़न की मांग करता है।
  • दूसरे देश में कानूनी रूप से शरणार्थी की मान्यता नहीं मिली है,और वह शरण के दावे पर निर्णय की प्रतीक्षा कर रहा है।
  • शरण मांगना मानवाधिकारों की श्रेणी में आता है।

प्रवासी-

  • प्रवासी की अंतर्राष्ट्रीय रूप से स्वीकृत कोई अंतर्राष्ट्रीय परिभाषा नहीं है,
  • प्रवासियों को अपने मूल क्षेत्र से रहने वाले के रूप में समझा जाता है जो शरण तलाश करने वाले या शरणार्थी नहीं है।
  • प्रवासियों के देश छोड़ने का कारण- शिक्षा, रोजगार या परिवार हो सकता है।

कुकी चिन मिजो- 

  • कुकी मंगोली नृवंश समुदाय की आदिवासी जनजाति है।
  • इनको चिन, जोमी व मिजो(मिजोरम) भी कहा जाता है। चिन शब्द का प्रयोग म्यांमार के चिन प्रांत के लोगों के लिए किया जाता है।
  • कुकी लोग भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों, उत्तरी म्यांमार व बांग्लादेश के चितगांव पहाड़ी पर निवास करती है।
  • भारत में मणिपुर में यह जाति अधिक पाई जाती है, 
  • चिन कुकी समुदाय में गंगटे, हमार, पेइती, थाद, वैपी , जोऊ, आइमोल, चिरु, कोइरेंग, कोम, एनल, चोथे, लमगांग, कोइरो, थंगल, मोयोन और मोनसांग शामिल हैं।
  • वर्तमान में इन्हें बांग्लादेश चटगांव हिल ट्रैक्ट में हिंसा से बचकर मिजोरम आने वाले शरणार्थी के रूप में पहचाना जा रहा है।

मिजोरम शरणार्थी समस्या के कारण-

  • म्यांमार के चिन राज्य के साथ मिजोरम की 510 किमी की लंबी सीमा बनी हुई है। जिसमें में कोई बाढ़ या पाबंदी नहीं है।
  • दोनों के देशों के नागरिक सीमा के दोनों ओर 16 किमी दूरी व 14 दिन तक एक दूसरे के देश में सामाजिक, व्यापारिक जैसे कार्यों से रुक सकते हैं। जिसके कारण दोनों देशों में ठहरने, शरण लेना, किसी अन्य स्थान पर जाने से अधिक सुलभ है।
  • राज्य में शरण लेने वाले म्यांमार के अधिकतर नागरिक चिन समुदाय से हैं।
  • मिजोरम के मिजो व चिन समुदाय की संस्कृति लगभग समान है, जिसके कारण म्यांमार के शरणार्थी मिजोरम में शरण लेना अधिक सुरक्षित समझते हैं। 
  • अंतर्राष्ट्रीय तौर पर चिन को शरणार्थी का दर्जा प्राप्त नहीं है इसलिए जिला प्रशासन उनके रहने ठहरने की व्यवस्था नहीं कर सकता है।
  • केंद्र के शरणार्थियों को वापस भेजने के फैसले व मिजोरम और चिन समुदाय की ऐतिहासिक व एकीकृत संस्कृति के बीच शरणार्थियों की स्थिति स्थिर नहीं है।
  • 1951 का शरणार्थी सम्मेलन और इसका 1967 का प्रोटोकॉल प्रमुख कानूनी दस्तावेज हैं जो इसमें एक अन्य दृष्टिकोण रखते हैं।

शरणार्थी सम्मेलन व भारत

1951 का शरणार्थी सम्मेलन और इसका 1967 का प्रोटोकॉल प्रमुख कानूनी दस्तावेज हैं। इसके अनुसार-

  • एक शरणार्थी को ऐसे देश में नहीं लौटाया जाना चाहिए जहां उन्हें अपने जीवन या स्वतंत्रता के लिए गंभीर खतरे का सामना करना पड़ता है। यह अब प्रथागत अंतरराष्ट्रीय कानून का एक नियम माना जाता है। 
  • शरणार्थियों के अधिकारों का सम्मान और सुरक्षा सुनिश्चित करने में राज्यों से हमारे साथ सहयोग की अपेक्षा की जाती है।
  • 1967 का एक शरणार्थी प्रोटोकॉल वैश्विक स्तर पर शरणार्थियों के संकट का प्रबंधन की बात करता है। 

1951 के शरणार्थी सम्मेलन में शरणार्थियों के आर्थिक अधिकारों के वंचित होने से संंबंधित कोई प्रावधान नहीं है, यह प्रावधान होने पर भारत में आर्थिक बोझ में वृद्धि हो सकती है।  

इसके साथ ही इन प्रावधानो में हस्ताक्षर करने से दक्षिण एशियाई देशों में विखण्डन की अवस्था में बड़ी मात्रा में भारत में शरणार्थी समस्या उत्पन्न हो सकती है। जो भारत के संसाधनों में कमी व जनसंख्या मं वृद्धि का कारण बन सकता है। अतः भारत ने इन सम्मेलन व प्रोटोकॉल में हस्ताक्षर नहीं किए हैं।

नॉन रिफॉल्मेंट की नीति-

भारत ने इन सम्मेलनों में उल्लिखित “नॉन-रिफॉलमेंट” के उस अंतर्राष्ट्रीय सिद्धांत का पालन किया है जो यह बाध्य करता है कि कोई भी देश शरणार्थियों को उस स्थान पर वापस नहीं भेज सकता जहां उनका जीवन संकट में पड़ जाए। इस तरह भारत ने अपनी घरेलू न्याय व्यवस्था के तहत अलग अलग मामलों में नॉन-रिफॉलमेंट के सिद्धांत को लागू किया है। 

आनंद भवानी (ए) गीताननडो, आनंद आश्रम,पांडिचेरी बनाम भारत के केस में 1991 के निर्णय में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि अगर कुछ लोगों की उपस्थिति राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए आशंका बन जाए तो सुनवाई के बिना उनके निर्वासन का आदेश प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत का उल्लंघन नहीं माना जाएगा।

लुइस डी रेड्स बनाम यूनियन ऑफ इंडिया 1991 केस में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था विदेशियों को निर्वासित करने के मामले में सरकार के अधिकार बिल्कुल स्वतंत्र हैं।

स्रोत

https://indianexpress.com/article/political-pulse/mizoram-kuki-tribal-asylum-seekers-bangladesh-8294558/

https://www.dw.com

https://www.unhcr.org/en-in/about-us/background/4ec262df9/1951-convention-relating-status-refugees-its-1967-protocol.html

https://southasianvoices.org

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