लोकलुभावनवाद भारत के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है

लोकलुभावनवाद भारत के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है

स्त्रोत्र – द हिन्दू एवं पीआईबी। 

सामान्य अध्ययन : भारतीय अर्थव्यवस्था का विकास , राजकोषीय घाटा , लोकलुभावनवादी घोषनाएं और योजनाएं, सब्सिडी, नकद हस्तांतरण।

ख़बरों में क्यों ?

“ किसी आदमी को एक मछली दो तो तुम एक दिन के लिए  उसका पेट भरोगे लेकिन अगर किसी आदमी को मछली पकड़ना सिखा दो तो तुम जीवन भर के लिए उसके पेट भरने का उपाय कर दोगे।’’ ( “Give a man a fish and you feed him for a day, teach a man to fish and you feed him for a lifetime.”)

  • हाल ही में भारत सरकार के कुछ वरिष्ठ अधिकारियों ने प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को आगाह किया है कि देश के कई राज्यों का कर्ज बेहद ऊंचे स्तर पर पहुंच गया है। सब्सिडी और नकदी हस्तांतरण के बोझ से सरकारों के खजाने कराहने लगे हैं।  जिससे समस्या इतनी गंभीर हो गई है कि उस पर तत्काल ध्यान देना होगा। यह सिलसिला यदि यूं ही चलता रहा तो फिर कोई उपाय भी कारगर नहीं रह जाएगा। इस तरह की राजनीति में कोई भी दल और कोई भी राज्य किसी से पीछे नहीं है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान भारत के राजनीतिक-आर्थिक ढांचे में कल्याणकारी लोकलुभावनवाद की एक नई लहर चली है। यह चाहे केंद्र में हो या फिर राज्यों के स्तर पर, उनके उनके बीच एक होड़ सी दिख रही है। वे कर्ज माफी, गैस सिलेंडर और नकदी हस्तांतरण जैसी चीजों पर जोर दे रहे हैं। जिसके कारण स्वास्थ्य एवं शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों की अनदेखी हो रही है। कुल मिलाकर, तमाम सरकारें अपनी कमाई से ज्यादा खर्च करने में लगी हैं। 
  • यह भी सच है कि कुछ कल्याणकारी योजनाओं पर सवाल नहीं उठाए जा सकते। जैसे कि केंद्र सरकार की खाद्य सब्सिडी। कोविड महामारी के काल में सरकार द्वारा की गई पहल इसकी उपयोगिता स्वयं सिद्ध हुई। फिर भी एक सवाल अवश्य उठता है कि भारत में जहां सरकारी खजाना पहले से ही दबाव में है वहां खुले हाथ से खर्च जारी रखना कितना तार्किक होगा। वह भी तब जब यह राजस्व जुटाने के अतिरिक्त उपाय तलाशने के बिना ही यह किया जा रहा हो।
  • खर्च के रुझान में इस बदलाव के पीछे स्वाभाविक रूप से चुनावी नैया पार लगाने वाला पहलू है। भारत में चुनाव एक तरह से प्रतिस्पर्धी लोकलुभावनवाद का अखाड़ा बन चुके हैं, जिसमें नेता किसी भी कीमत पर जीत का दांव लगाने की जुगत भिड़ाते हैं। व्यापक रूप से यही माना जाता है कि मतदाता ऐसी कल्याणकारी योजनाओं का अहसान किसी पार्टी के पक्ष में मतदान से चुकाते हैं। इतने बड़े स्तर पर इन योजनाओं में होने वाले खर्च के कारण यह मुद्दा भारत के उच्चतम न्यायालय तक पहुंच चुका है। शीर्ष अदालत जुलाई, 2013 में सुब्रमण्यम बालाजी बनाम तमिलनाडु सरकार एवं अन्य मामले में चुनाव आयोग को न्यायालय में बुला चुकी है। मुफ्तखोरी से जुड़े मामले में बीते दिनों फिर सर्वोच्च न्यायालय में सुनवाई हुई। भाजपा नेता अश्विनी उपाध्याय ने इस आशय की एक याचिका लगाई थी। उनकी अर्जी चुनाव आयोग को संबोधित है कि क्या आयोग ऐसी नियमावली बना सकता है जो राजनीतिक दलों को चुनावी घोषणा पत्र में किए जाने वालों वादों को लेकर अनुशासित बना सके। अपने जवाब में आयोग ने  कहा कि – “किसी भी तरह के कानूनी अधिकार के अभाव में वह इस मामले में कुछ ज्यादा करने की स्थिति में नहीं है कि ऐसी नीतियां आर्थिक रूप से अव्यावहारिक और सरकारी खजाने की सेहत के लिए खतरनाक हैं। इसका निर्णय तो मतदाताओं को ही करना होगा।” 

ऐसी आशंका व्यक्त की जा रही है कि 2024 के आगामी चुनावों को देखते हुए, लोकलुभावनवाद में किए गए वायदों से भारत की आर्थिक सुधार की धीमी गति पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। जिसके प्रमुख कुछ बिंदु निम्नलिखित है –

  • सरकार ने 2025-26 तक के लिए सकल घरेलू उत्पाद के 4.5% के मध्यम अवधि राजकोषीय घाटे का लक्ष्य रखा है। यह तीन वित्तीय वर्षों के वर्तमान स्तर से 2% कम है।
  • 2023-24 में केंद्र और राज्यों के लिए यह क्रमशः 5.9% और 3% है। इसमें बिजली क्षेत्र में सुधार के लिए आधे प्रतिशत की छूट रखी गई है।
  • राज्यों के पास राजकोषीय घाटे से बचने के रास्ते होते हैं, लेकिन मुफ्त बिजली और खाद्यान्न के वायदों के चलते वे हासिल नहीं किए जाते हैं। उधर, केंद्र सरकार आर्थिक सुधार के लिए पूंजी खर्च करने को तैयार है, और राज्यों को राजकोषीय संतुलन के लिए प्रोत्साहित कर रही है।
  • वैश्विक स्तर पर फिलहाल उच्च ब्याज दर चल रही है। ऐसे में केंद्र सरकार छोटे उद्यमों में ऋण प्रवाह को बनाए रखने के लिए परेशान हो रही है। अब एक ही उपाय बचता है कि सरकारी व्यय पर नियंत्रण रखकर क्रेडिट कॉस्ट को भी नियंत्रित किया जा सके। इसके बाद ही बड़े पैमाने पर निवेश का प्रावधान मिल सकता है।
  • राज्यों ने अपनी परेशानी स्वयं ही बढ़ा रखी है। मुफ्त बिजली के राजनीतिक वायदों को निपटाने का अतिरिक्त भार ओढ़ रखा है। चूंकि बिजली से होने वाली आय, राज्यों के लिए बहुत मायने रखती है, इसलिए अब राज्य उत्पादन और संचरण में निवेश नहीं कर पा रहे हैं।

कल्याण का ऐसा राजनीतिक स्वरूप बाजार तंत्र को तो बिगाड़ता ही है, साथ ही असमानता को भी बनाए रखता है। सार्वभौमिक संपत्ति के पुनर्वितरण के लिए नकद हस्तांतरण को वैश्विक स्तर पर सर्वश्रेष्ठ माना जा रहा है। भारत ने स्वतंत्रता के बाद से ही समावेशी विकास का असफल प्रयत्न किया है। दृष्टिकोण बदलते हुए अब समूहों में कल्याण की समान योजनाओं को चलाया जा रहा है। इस दृष्टिकोण ने अनेक वैश्विक संकटों से अर्थव्यवस्था को उबारा है। अब मुफ्त देनदारियों की प्रतिस्पर्धी घोषणाओं से इसे नष्ट नहीं किया जाना चाहिए। इससे भारत की विकास गति धीमी पड़ सकती है।

फ्रीबीज़ ( निःशुल्क ) :

भारतीय रिज़र्व बैंक की वर्ष 2022 की एक रिपोर्ट में फ्रीबीज़ को ‘‘एक लोक कल्याणकारी उपाय (जो निःशुल्क प्रदान किया जाता है)’’ के रूप में परिभाषित किया गया है। इसमें कहा गया है कि फ्रीबीज़ स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे व्यापक एवं दीर्घकालिक लाभ प्रदान करने वाली सार्वजनिक/ मेरिट वस्तुओं (public/merit goods) से अलग होता हैं। 

फ्रीबीज़ ( निःशुल्क )  और कल्याणकारी राज्य (वेलफेयर स्टेट ) में मूलभूत अंतर :

समाज और लाभार्थियों पर पड़नेवाले दीर्घकालिक प्रभाव के आलोक में निःशुल्कता/ फ्रीबीज़ और वेलफेयर या कल्याणकारी योजनाओं के बीच  के अंतर को समझा जा सकता है। कल्याणकारी योजनाओं से राज्य या समाज पर  सकारात्मक प्रभाव पड़ता  है, जबकि निःशुल्कता/ फ्रीबीज़ दूसरे पर या राज्य पर निर्भरता या विकृति उत्पन्न कर सकता हैं।

  • एक ओर जहाँ फ्रीबीज़ वे वस्तुएँ और सेवाएँ हैं जो उपयोगकर्ताओं को बिना किसी शुल्क के मुफ़्त में प्रदान की जाती हैं। इसे आमतौर पर अल्पावधि में लक्षित आबादी को लाभान्वित करने के उद्देश्य से प्रदान किया जाता है। इस तरह के कार्य प्रायः मतदाताओं को लुभाने या लोकलुभावन वादों के साथ रिश्वत देने के एक तरीके के रूप में देखा जाता है। निःशुल्क लैपटॉप, टीवी, साइकिल, बिजली, पानी आदि उपलब्ध कराना फ्रीबीज़ के कुछ उदाहरण हैं।
  • वहीं दूसरी ओर कल्याणकारी योजनाएँ सुविचारित योजनाएँ होती हैं जिनका उद्देश्य लक्षित आबादी को लाभान्वित करना और उनके जीवन स्तर के साथ संसाधनों तक आसानी से पहुँच में सुधार करना होता है। यह आमतौर पर नागरिकों के प्रति संवैधानिक दायित्वों (राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों के अनुपालन में) की पूर्ति करने का उद्देश्य रखती हैं। इन्हें अक्सर सामाजिक न्याय, समता और मानव विकास को बढ़ावा देने के एक तरीके के रूप में देखा जाता है।सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDS), महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम (MGNREGA), मध्याह्न भोजन योजना आदि कल्याणकारी योजनाओं के कुछ उदाहरण हैं।

लोकलुभावनवाद निः शुल्कता से  होने वाले लाभ :

 

  • सार्वजनिक – संलग्नता और सर्वजन तक पहुँच : किसी भी सरकार द्वारा शुरू की गई  निःशुल्क योजनाएं सरकार के प्रति जनता के भरोसे एवं संतुष्टि में अत्यधिक वृद्धि करते हैं, क्योंकि इस प्रकार कोई भी राज्य या केंद्र सरकार लोगों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी और जवाबदेही को प्रदर्शित करते हैं। इसके अतिरिक्त निःशुल्क योजनाएं सरकार और नागरिकों के बीच प्रतिक्रिया एवं संवाद के अवसरों का सृजन करती है , जिससे लोकतंत्र में पारदर्शिता के साथ संवृद्धि हो सकती है।
  • सरकार के प्रति सकारात्मक प्रभाव :  ‘सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च’ के एक अध्ययन में पाया गया कि उत्तर प्रदेश और तमिलनाडु में लैपटॉप, साइकिल एवं नकद हस्तांतरण जैसी निःशुल्क योजनाएं मतदाता के रुझान, उनकी राजनीतिक जागरूकता और उनका सरकार के प्रति संतुष्टि पर सकारात्मक प्रभाव पड़ा है।
  • कार्यबल की उत्पादक क्षमता में वृद्धि और आर्थिक विकास:  निःशुल्क योजनाएं कार्यबल की उत्पादक क्षमता में वृद्धि करके (विशेष रूप से कम विकसित क्षेत्रों में) आर्थिक विकास को प्रोत्साहित कर सकते हैं। उदाहरण के लिए  लैपटॉप, साइकिल या सिलाई मशीन जैसी निःशुल्क योजनाएं गरीब एवं ग्रामीण आबादी के कौशल, गतिशीलता एवं आय के अवसरों को बढ़ा सकते हैं।
  • स्कूल ड्रॉपआउट दर में सुधार लाना : नीति आयोग की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि बिहार और पश्चिम बंगाल में स्कूली छात्राओं को साइकिल जैसे निःशुल्क योजनाएं प्रदान करने से उनके नामांकन में वृद्धि हुई है। इसके साथ – ही – साथ  स्कूल ड्रॉपआउट दर में भी कमी आई है और बच्चों के शिक्षण अधिगम प्रतिफल (learning outcomes) में सुधार हुआ है।
  • जीवन गुणवत्ता में सुधार लाने एवं समाज कल्याण में सहायक : निःशुल्क योजनाएं समाज के वंचित , गरीब और हाशिये पर स्थित वर्गों को खाद्य, शिक्षा, स्वास्थ्य, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाएँ प्रदान कर सकते हैं। उदाहरण के लिए – स्कूल के लिए यूनिफ़ॉर्म, पाठ्यपुस्तक या स्वास्थ्य बीमा जैसी निःशुल्क योजनाएं ज़रूरतमंद जाति , समुदायों या वंचित समूहों के बीच साक्षरता, स्वास्थ्य और जीवन गुणवत्ता में सुधार ला सकते हैं।
  • निर्धनता अनुपात को कम करने में सहायक : विश्व बैंक के एक अध्ययन में यह पाया गया है कि सार्वजनिक वितरण – प्रणाली (PDS) के तहत खाद्य सब्सिडी निःशुल्क योजनाएं ने भारत में निर्धनता अनुपात को 7% तक कम करने में भूमिका निभाई है।
  • विनाशकारी स्वास्थ्य आघातों को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका : NSSO के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि राष्ट्रीय स्वास्थ्य बीमा योजना (RSBY) के अंतर्गत स्वास्थ्य बीमा जैसी निःशुल्क योजनाओं ने गरीबी रेखा से नीचे के परिवारों (BPL households) के लिए जेब के खर्च (Out-of-pocket expenditure) और विनाशकारी स्वास्थ्य आघातों को कम करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
  • गरीबी और आय असमानता को कम करने में सहायक :  निःशुल्क योजनाएं धन एवं संसाधनों को अधिक समान रूप से पुनर्वितरित करके आय असमानता एवं गरीबी को कम कर सकते हैं। उदाहरण के लिए  ऋण माफी या नकद हस्तांतरण जैसे  निःशुल्क योजनाएं ऋणी या निम्न आय वाले परिवारों को संपत्ति, ऋण या एक निश्चित आय तक पहुँच प्रदान कर उन्हें सशक्त बना सकते हैं।
  • किसानों की साख क्षमता में सुधार : भारतीय रिज़र्व बैंक की एक रिपोर्ट में पाया गया कि ऋण माफी से ऋण बोझ से राहत मिली है और अधिसंख्यक संकटग्रस्त किसानों की साख क्षमता में सुधार हुआ है।

लोकलुभावनवाद निः शुल्कता से  होने वाली हानियाँ :

  • आत्मनिर्भर बनाने में अवरोधक:  निःशुल्क योजनाओं को प्राप्त करने वाले समूहों के बीच निःशुल्क योजनाएं उनमें आत्मनिर्भरता और पात्रता के एक नकारात्मक पैटर्न का निर्माण कर सकते हैं, जिससे यह भविष्य में और अधिक निःशुल्क योजनाओं की उम्मीद कर सकते हैं। जिससे वे  कठिन श्रम करने या करों का भुगतान करने के लिए कम प्रेरित हो सकते हैं। उदाहरण के लिए –  1 रुपए प्रति किलो चावल या शून्य लागत पर बिजली जैसे निःशुल्क योजनाएं लाभार्थियों को राज्य के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी एवं जवाबदेही की भावना को कम कर सकती हैं और उन्हें हमेश बाह्य सहायता पर निर्भर रहने वाले समूह में बदल सकते हैं। ‘एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स’ के एक सर्वेक्षण से पता चला कि तमिलनाडु में 41% मतदाताओं ने मतदान के लिए  निःशुल्क योजनाओं को एक महत्त्वपूर्ण कारक माना, जबकि 59% ने कहा कि वे राज्य सरकार के प्रदर्शन से संतुष्ट हैं।
  • ऋण और मुद्रास्फीति में वृद्धि और राजकोषीय घाटा में वृद्धि : निःशुल्क योजनाओं का राज्य या देश के राजकोषीय स्वास्थ्य पर प्रतिकूल परिणाम उत्पन्न हो सकता हैं, क्योंकि इससे सार्वजनिक व्यय, सब्सिडी, घाटे, ऋण और मुद्रास्फीति में वृद्धि होती है। उदाहरण के लिए  कृषि ऋण माफी, बेरोज़गारी भत्ते या पेंशन योजनाओं जैसे निःशुल्क योजनायें सरकार के बजटीय संसाधनों और राजकोषीय अनुशासन / व्यवस्था पर दबाव बढ़ा सकते हैं तथा राज्य द्वारा अन्य क्षेत्रों में निवेश करने या अपने दायित्वों की पूर्ति करने की राज्य की क्षमता को प्रभावित कर सकते हैं।
  • व्यय प्राथमिकताओं और संसाधनों का गलत आवंटन : निःशुल्क योजनाओं से राज्य को अन्य अवसंरचनात्मक, कृषि, उद्योग जैसे अधिक उत्पादक एवं आवश्यक क्षेत्रों से धन को दूसरी ओर मोड़कर व्यय प्राथमिकताओं और संसाधनों के आवंटन में वितरित किया जाता है , जिससे राज्य के विकास पर नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। मोबाइल फोन, लैपटॉप या एयर कंडीशनर जैसी निःशुल्क योजनाओं पर सार्वजनिक व्यय का बड़ा हिस्सा खर्च हो सकता है जिससे सड़कों, पुलों, सिंचाई प्रणालियों या बिजली संयंत्रों जैसे सार्वजनिक क्षेत्रों में  निवेश करने के लिए राज्य को धन की कमी का सामना करना पड़ता है।
  • नवाचार एवं सुधारात्मक गुणवत्ता में कमी : निःशुल्क योजनाओं से राज्य द्वारा नवाचार एवं सुधार के लि प्रोत्साहन को कम करके मुफ़्त में दी जाने वाली वस्तुओं एवं सेवाओं की गुणवत्ता और प्रतिस्पर्द्धात्मकता को कम किया जाता हैं। उदाहरण के लिए –  साइकिल या लैपटॉप जैसी निःशुल्क योजनाएं , बाज़ार में उपलब्ध या अन्य देशों द्वारा उत्पादित इन उत्पादों की तुलना में घटिया गुणवत्ता या पुरानी तकनीक के हो सकते हैं।
  • पर्यावरण संरक्षण एवं प्राकृतिक संसाधनों का अत्यधिक दोहन : निःशुल्क योजनाओं के माध्यम से राज्य द्वारा जल, बिजली या ईंधन जैसे प्राकृतिक संसाधनों के अत्यधिक उपयोग एवं अपव्यय को प्रोत्साहित करने के रूप में पर्यावरण पर नकारात्मक प्रभाव पड़ सकता है। मुफ़्त बिजली, पानी या मुफ़्त गैस सिलेंडर जैसे निःशुल्क योजनाओं से, इनके संरक्षण एवं कुशल उपयोग के लिए प्रोत्साहन में कमी आ सकती हैं और इस तरह यह पर्यावरण में कार्बन फुटप्रिंट एवं प्रदूषण के स्तर को बढ़ा सकता है।
  • कैग (CAG) की एक रिपोर्ट में बताया गया कि पंजाब में किसानों के लिए मुफ़्त बिजली – आबंटन के कारण बिजली के अत्यधिक उपयोग के साथ इसकी दक्षता भी प्रभावित हुई हैं ।

आगे की राह :

राज्य द्वारा राजस्व के स्रोतों को स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट करना : राजनीतिक दलों को निःशुल्क योजनाओं की घोषणा करने से पूर्व ही मतदाताओं और भारत निर्वाचन आयोग के सामने उस योजना के वित्तपोषण से संबंधित राजस्व के स्रोतों को स्पष्ट रूप से निर्दिष्ट करना, राजकोषीय संतुलन पर उस योजना से पड़ने वाले प्रभावों , सार्वजनिक व्यय की लागत और निःशुल्क योजनाओं की संवहनीयता के बारे में स्पष्टीकरण होना चाहिए।

भारत निर्वाचन आयोग को वृहत शक्तियाँ प्रदान करना : चुनाव के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा निःशुल्क योजनाओं की घोषणा एवं कार्यान्वयन को विनियमित करने और इनकी निगरानी करने के लिए  ECI को सशक्त किया जाना चाहिए। इसमें ECI को राजनीतिक दलों का पंजीकरण रद्द करने, जुर्माना लगाने या आदर्श आचार संहिता या फ्रीबीज़ पर न्यायालय के आदेशों का उल्लंघन करने के लिये अवमानना कार्रवाई करने की वृहत शक्तियाँ प्रदान करना शामिल होना चाहिए।

मतदाताओं को निःशुल्क योजनाओं के आर्थिक एवं सामाजिक परिणामों के बारे में शिक्षित करना : लोकतंत्र में निःशुल्क योजनाओं के प्रसार की अनुमति देने या इसे रोकने की शक्ति अंततः मतदाताओं के पास है। मतदाताओं को निःशुल्क योजनाओं के आर्थिक एवं सामाजिक परिणामों के बारे में शिक्षित करना और उन्हें राजनीतिक दलों से प्रदर्शन एवं जवाबदेही की मांग करने के लिए प्रोत्साहित करना आवश्यक है। मतदाताओं को तर्कसंगत एवं नैतिक विकल्प चुनने हेतु सूचना-संपन्न और सशक्त करने में मतदाता जागरूकता अभियान, मतदाता साक्षरता कार्यक्रम, नागरिक समाज पहल और मीडिया मंचों की उल्लेखनीय भूमिका होगी।

न्यायापालिका की संलग्नता आवश्यक :  निःशुल्क योजनाओं पर संसद में रचनात्मक बहस एवं चर्चा कठिन है क्योंकि   निःशुल्क योजना-  संस्कृति का हर राजनीतिक दल पर प्रभाव है, चाहे वह प्रत्यक्ष रूप से हो या अप्रत्यक्ष रूप से। इस परिदृश्य में विभिन्न उपायों पर विचार करने के लिए भारत में न्यायापालिका की संलग्नता आवश्यक है।

सामाजिक प्रगति के लिए समावेशी विकास पर ध्यान केंद्रित करना: इससे गरीबी एवं असमानता के मूल कारणों को हल किया जा सकेगा जो लोगों को निःशुल्क योजनाओं के प्रति भेद्य या संवेदनशील बनाते हैं। समावेशी विकास, आर्थिक विकास और सामाजिक प्रगति के लिए  अधिक अनुकूल वातावरण का भी निर्माण करेगा, जो दीर्घावधि में समाज के सभी वर्गों को लाभान्वित करेगा। इस प्रकार समावेशी विकास निःशुल्क योजनाओं का अधिक प्रभावी एवं वांछनीय विकल्प हो सकता है।

  • यह ध्यान देने योग्य बात यह है कि कोई भी राजनीतिक पार्टियां मतदाताओं को मुफ्तखोरी वाली नीतियों के संभावित नुकसान की जानकारी दिए बिना ही उनकी पेशकश करती हैं। इसका कारण यही है कि यदि किसी को कुछ मुफ्त पेशकश की जाए तो यही आसार अधिक हैं कि वह उसे अस्वीकार नहीं करेगा। ऐसे में कोई हैरानी नहीं कि पार्टियां इन नीतियों की वकालत करती हैं, क्योंकि उनके अपने सर्वेक्षण इन योजनाओं की लोकप्रियता को दर्शाते हैं। जब मतदाताओं को यह पता चले कि इन चुनावी खैरात के चलते सरकारी धन के उन पर खर्च होने के कारण उन्हें किन अन्य लाभों से वंचित रहना पड़ सकता है तब संभव है कि वे मुफ्तखोरी की इन योजनाओं को खारिज कर दें।
  • भारतीय अर्थव्यवस्था इस समय भारी दबाव में है। जहां केंद्र और राज्यों को मिलाकर जीडीपी के अनुपात में कर राजस्व 18 प्रतिशत है तो वहीं व्यय का अनुपात 29 प्रतिशत है। पंद्रहवें वित्त आयोग के अध्यक्ष एनके सिंह ने हाल में चेताया है कि यदि राज्यों ने मतदाताओं को लुभाने के लिए खैरात बांटना बंद नहीं किया जो भारत को आर्थिक मोर्च पर बड़ी दुश्वारियों का सामना करना पड़ेगा। उन्होंने कहा कि यह राजकोषीय आपदा को आमंत्रण दे सकता है।
  • सरकारी खजाने से खैरात बांटने का चुनावी संभावनाओं पर बहुत सीमित असर होता हो, लेकिन इसके बावजूद यह सिलसिला हाल-फिलहाल थमता नहीं दिखता। राजनेता बड़ी दुविधा की स्थिति में है। वे जानते हैं कि ऐसी लुभावनी पेशकश उन्हें बढिय़ा गवर्नेंस रिकार्ड के अभाव में चुनाव के दौरान शायद कुछ राजनीतिक बढ़त बनाने में मददगार हो सकती हैं। वे इससे भी भलीभांति अवगत हैं कि गुप्त मतदान और अन्य दलों द्वारा भी यही दांव चलने से गेंद पूरी तरह मतदाताओं के पाले में रहती है। यह भी सच है कि कोई नेता इस तरह की लोकलुभावन योजनाओं से पूरी तरह मुंह फेरने का जोखिम नहीं ले सकता। ऐसी स्थिति में हम केवल यही उम्मीद कर सकते हैं कि निकट भविष्य में राजनीतिक दल और मतदाता इस सहमति पर पहुंचें कि ऐसी योजनाओं की मांग और आपूर्ति केवल नुकसान ही करती है।
  • जहां राजनीतिक दल इस प्रकार की लोकलुभावनवादी होड़ में लगे हुए हैं तो यह पड़ताल भी जरूरी है कि ऐसी नीतियां आखिर मतदाताओं को कितना प्रभावित करती हैं? इसमें कोई संदेह नहीं कि ये नीतियां जरूर कुछ चुनावी लाभ का सबब बनती हैं, लेकिन इनके प्रभाव को कुछ ज्यादा ही बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया जाता है। यदि इस प्रकार का लोलुभावनवाद ही चुनावी जीत में निर्णायक रहे तो सत्तारूढ़ दल और उसके प्रत्याशियों को बहुत कम बार हार का सामना करना पड़ता। जबकि भारत का रुझान यही दिखाता है कि यहां  चुनाव जीतकर पुन: सत्ता में आना काफी कठिन माना होता है। ऐसी पेशकश के चुनावी प्रभाव के लिए राजनीतिक दलों को यह तक जानना होगा कि किन लाभार्थियों ने उनके पक्ष में मतदान किया और किन्होंने नहीं। और ऐसा भारत में कर पाना बेहद मुश्किल है । यहां चुनाव आयोग मतदान की गोपनीयता सुनिश्चित करने को प्रतिबद्ध है। लोकनीति-सीएसडीएस द्वारा 2009 में संकलित डाटा के अनुसार नेताओं के लिए विशेषकर यह पता लगाना बेहद मुश्किल है कि स्थानीय चुनावों में मतदाताओं ने किसे वोट दिया था।

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प्रारंभिक परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

Q. 1 लोकलुभावनवाद निः शुल्क योजनाओं के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए।

  1. इसे आमतौर पर अल्पावधि में लक्षित आबादी को लाभान्वित करने के उद्देश्य से प्रदान किया जाता है।
  2. यह गरीबी और आय असमानता को कम करने में सहायक होता है।
  3. इससे व्यय प्राथमिकताओं और संसाधनों का गलत आवंटन होने की संभावना होती है।
  4. इसे जीवन गुणवत्ता में सुधार लाने एवं समाज कल्याण में सहायता पहुँचाने के उद्देश्य से किया जाता है। 

उपरोक्त कथन / कथनों में से कौन सा कथन सही है ? 

(A). केवल 1, 2 और 3

(B). केवल 2 , 3 और 4 

(C ). केवल 2 और 4 

(D) इनमें से सभी।

उत्तर – (D) 

मुख्य परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

Q.1.किसी भी लोकतांत्रिक राज्य में लोकलुभावनवादी घोषनाएं और योजनाएं किस प्रकार राजकोषीय घाटा में वृद्धि करती है और भारत की आर्थिक सुधार की गति पर धीमा और बुरा प्रभाव डालता है ? लोकलुभावनवादी घोषनाओं और योजनाओं में निहित सामाजिक , आर्थिक एवं राजनीतिक प्रभावों की आलोचनात्मक व्याख्या कीजिए । 

 

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