सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों का आधिकारिक पद स्वीकार करने के नैतिक निहितार्थ

सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों का आधिकारिक पद स्वीकार करने के नैतिक निहितार्थ

स्त्रोत – द हिन्दू एवं पीआईबी।

सामान्य अध्ययन – भारतीय राजनीति एवं शासन व्यवस्था , भारतीय संविधान का अनुच्छेद 217, न्यायिक औचित्य, न्यायिक निष्पक्षता और न्यायपालिका की अखंडता, कॉलेजियम प्रणाली, कॉलेजियम प्रणाली का विकास और इसकी आलोचना,  भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) के त्याग-पत्र के बाद आधिकारिक पद को स्वीकार करने के नैतिक निहितार्थ।

 

ख़बरों में क्यों ? 

 

 

  • भारत में होने वाले लोकसभा के आम चुनाव 2024 की तिथियों की घोषणा के बाद हाल ही में कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश अभिजीत गंगोपाध्याय ने अपने पद से त्याग-पत्र दे दिया है और भारत की एक प्रमुख राष्ट्रीय राजनीतिक दल में शामिल हो गए हैं।
  • कोलकाता उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश अभिजीत गंगोपाध्याय के अपने पद से त्याग-पत्र देने के तुरंत बाद भारत के एक प्रमुख राजनीतिक दल में शामिल हो जाने के बाद एक बार फिर से भारत में उच्च न्यायालय एवं उच्चत्तम न्यायालय के एक न्यायाधीश के द्वरा तरह के कदम उठाने के औचित्य और महत्व पर फिर से चर्चा शुरू हो गई है।
  • भारत में बहु प्रतीक्षित अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के मामले में निर्णय देने वाले उच्चतम न्यायालय के खंडपीठ के मुख्य न्यायाधीश रंजन गगोई को भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा राज्यसभा के सदस्य के रूप में नामित किए जाने के बाद भारत में यह चर्चा चली कि सेवानिवृत्ति के बाद भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों अथवा उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों द्वारा किसी भी तरह का आधिकारिक पद स्वीकार करने के नैतिक निहितार्थ क्या सही है अथवा गलत ? 
  • वर्ष 1967 में, भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश (CJI) कोका सुब्बा राव ने विपक्षी उम्मीदवार के रूप में राष्ट्रपति चुनाव लड़ने के लिये सेवानिवृत्त होने से तीन महीने पहले त्याग-पत्र दे दिया था।
  • वर्ष 1983 में अपने सेवानिवृत्ति से छह सप्ताह पहले भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश बहारुल इस्लाम द्वारा  लोकसभा चुनाव लड़ने के लिए अपना त्याग-पत्र देना भी सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों का आधिकारिक पद स्वीकार करने के नैतिक निहितार्थ को चर्चा के केंद्र में ला दिया था।

 

भारत में राजनीति के लिए एक न्यायाधीश के त्याग- पत्र के बाद किसी भी प्रकार का आधिकारिक पद स्वीकार करने से संबंधित नैतिक चिंताएँ : 

 

 

  • भारत में सक्रिय राजनीति में शामिल होने के लिए न्यायपालिका से न्यायाधीश के त्याग-पत्र से उत्पन्न चिंताओं के कुछ महत्त्वपूर्ण नैतिक निहितार्थ हैं जो भारत में न्यायिक औचित्य और न्यायिक निष्पक्षता और न्यायपालिका की अखंडता की धारणा को प्रभावित करते हैं।  जो निम्नलिखित है – 

 

भारत में न्यायपालिका की न्यायिक स्वतंत्रता : 

  • भारत में विधि या कानून का शासन और लोकतंत्र स्थापित करने को सुनिश्चित करने के लिए न्यायिक स्वतंत्रता अत्यंत महत्त्वपूर्ण है।
  • भारत में एक न्यायाधीश द्वारा सेवानिवृत्ति के तुरंत बाद किसी राजनीतिक दल में शामिल होना उसके द्वारा न्यायाधीश के पद पर रहते हुए उसके द्वारा दिए गए न्यायिक निर्णयों की स्वतंत्रता पर सवाल उठाता है और न्यायपालिका के कार्य पद्धति पर राजनीतिक विचारों के प्रभाव के संबंध में चिंता उत्पन्न करता है।
  • भारत जैसे लोकतंत्रात्मक व्यवस्था वाले देश में न्यायाधीशों को राजनीतिक संस्थाओं सहित किसी भी बाहरी पक्ष के हस्तक्षेप या प्रभाव से मुक्त रहना अत्यंत महत्वपूर्ण है।

भारत में न्यायपालिका का न्याय के प्रति न्यायिक निष्पक्षता : 

  • भारत में किसी भी न्यायाधीशों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे न्याय सुनिश्चित करने के प्रति तटस्थ रहें और वह अपने व्यक्तिगत पूर्वाग्रहों या किसी भी प्रकार के बाहरी दबावों से प्रभावित हुए बिना केवल तथ्यों तथा कानून के आधार पर ही अपना निर्णय दें और वह न्यायिक निष्पक्षता को सुनिश्चित करे।
  • भारत में किसी भी न्यायाधीश का किसी भी प्रकार के विवादों में शामिल होने के बाद किसी भी राजनीतिक दल में शामिल होने के बाद वर्तमान में  न्यायाधीश के पद पर रहने वाले न्यायाधीशों के फैसले से राजनीतिक मामलों से जुड़े मामलों की सुनवाई करते समय उनकी निष्पक्षता पर सवाल उठता रहता है।
  • किसी भी भूतपूर्व न्यायाधीश द्वारा किसी भी प्रकार के आधिकारिक पद पर आसीन होने से न्यायपालिका की निष्पक्षता से न्याय देने की क्षमता के प्रति भारत की जनता का विश्वास कम होता है और अनेक प्रकार की शंकाएं बलवती हो उठती हैं।

 

न्यायपालिका के प्रति भारतीय जनता का विश्वास और भरोसा सुनिश्चित करना : 

  • भारत में शासन व्यवस्था का लोकतंत्रात्मक स्वरुप होने के कारण भारत की न्यायपालिका भारतीय समाज में अपनी भूमिका को पूरा करने के लिए भारतीय जनता के विश्वास और उसका न्यायपालिका के प्रति भरोसे पर निर्भर करती है। 
  • भारत में किसी भी न्यायाधीश द्वारा किसी भी तरह का आधिकारिक पद स्वीकार करने जैसे कार्यों में शामिल होने से यह भारत के न्यायपालिका के न्यायिक अखंडता और निष्पक्षता की धारणा को कमज़ोर करती है जिससे भारत में संपूर्ण न्यायिक प्रणाली के संबंध में जनता का विश्वास अत्यंत प्रभावित होता है।
  • भारत में न्यायपालिका से राजनीति में सक्रिय भागीदारी के लिए न्यायाधीशों का अपने पद से त्याग- पत्र देने से भारत की न्यायपालिका की स्वतंत्रता और अखंडता के प्रति जनता के बीच संदेह की स्थिति उत्पन्न हो सकती है।

आपसी हितों का टकराव होने की स्थिति उत्पन्न होना : 

  • भारत में उच्चतम न्यायालय या उच्च न्यायालयों के न्यायाधीशों से अथवा किसी भी न्यायाधीश से यह अपेक्षा की जाती है कि वे अपनी आपसी हितों के टकराव से बचें और न्यायिक प्रक्रिया की अखंडता बनाए रखें।
  • भारत में न्यायाधीशों का राजनीतिक गतिविधियों में उनकी भागीदारी, विशेष रूप से न्यायालय में कार्यरत रहते हुए उनके द्वारा विवादास्पद बयान देना और निर्णय देना , उनके व्यक्तिगत हितों के टकराव के संबंध में चिंताएँ उत्पन्न करती हैं।

न्यायाधीश के पद से सेवानिवृत्ति के पश्चात् आधिकारिक पदों पर नियुक्तियों का मुद्दा :

 

 

 

 

  • भारत में विगत कुछ सालों में कुछ सेवानिवृत्त न्यायाधीशों ने सेवानिवृत्ति के बाद सरकारी पद स्वीकार कर लिया था। सेवानिवृत्त न्यायाधीशों के द्वारा सेवानिवृत्ति के बाद आधिकारिक पद पर आसीन होने की यह प्रथा भारत के न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच स्पष्ट सीमांकन की अवधारणा को पूर्णतः धूमिल और शंकाग्रस्त कर देती है।

 

भारत में न्यायाधीशों के लिए सेवानिवृत्ति के पश्चात् किए जाने वाले कार्य : 

 

  • भारतीय संविधान स्पष्ट रूप से न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद के कार्यभार लेने से प्रतिबंधित नहीं करता है, लेकिन उनके आपसी हितों के संभावित टकराव को कम करने के लिए  ‘ कूलिंग-ऑफ अवधि लागू ’ करने के सुझाव दिए गए हैं।
  • भारत में न्यायाधीशों के लिए सेवानिवृति के पश्चात् कूलिंग-ऑफ अवधि के संबंध में भारत के उच्चतम न्यायालय के पूर्व सी.जे.आई, आर.एम.लोढ़ा ने कम-से-कम 2 वर्ष की कूलिंग-ऑफ अवधि की सिफारिश की थी।
  • ‘ कूलिंग – ऑफ अवधिकी अवधारणा भारत में किसी भी प्रकार के संवेदनशील पदों से सेवानिवृत्त होने वाले अधिकारियों को सामान्यतः दो वर्ष के लिए  कोई अन्य नियुक्ति स्वीकार करने से रोक दिया जाता है।
  • भारत में किसी उच्च और संवेदनशील पदों को धारण करने की स्थिति में ये कूलिंग-ऑफ अवधि पर्याप्त समय के अंतराल के माध्यम से पिछली नियुक्ति एवं नई नियुक्ति के बीच के संबंध को समाप्त करने पर आधारित होती है।

 

भारत के बाहर न्यायाधीशों की आधिकारिक पदों पर पुनर्नियुक्ति की अंतर्राष्ट्रीय प्रणालियाँ : 

  • भारत के बाहर संयुक्त राज्य अमेरिका में सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीश अपने जीवन में कभी भी सेवानिवृत्त नहीं होते हैं बल्कि न्यायपालिका और कार्यपालिका के आपसी हितों के टकराव को रोकने के लिए  जीवन भर अपने पद पर बने रहते हैं।
  • यूनाइटेड किंगडम में,न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी प्रकार की नौकरियाँ लेने से रोकने वाला कोई कानून नहीं है, लेकिन अभी तक किसी भी न्यायाधीश ने ऐसा कार्य नहीं किया है, जो उनके सेवानिवृत्ति के बाद की भूमिकाओं के मुद्दे पर एक अलग दृष्टिकोण रखने की अवधारणा को बताता है।

 

रीस्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज़ ऑफ ज्यूडिशिअल लाइफ की अवधारणा : 

 

 

 

  • भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने वर्ष 1997 में न्यायाधीशों के लिए  नैतिक मानकों और सिद्धांतों को रेखांकित करते हुए ‘ रीस्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज़ ऑफ ज्यूडिशिअल लाइफ की अवधारणा ’ को अंगीकृत किया था। ‘रीस्टेटमेंट ऑफ वैल्यूज़ ऑफ ज्यूडिशिअल लाइफ की अवधारणा’ के मुख्य प्रावधान  निम्नलिखित हैं – 
  • भारत में न्यायाधीशों को तटस्थ और निष्पक्ष होकर: न केवल न्याय किया जाना चाहिए,  बल्कि न्याय होना दिखना या प्रदर्शित भी होना चाहिए। न्यायाधीशों के व्यवहार से न्यायपालिका के प्रति निष्पक्षता में भारत के लोगों के विश्वास और भरोसे की पुष्टि भी होनी चाहिए ।
  • भारत में न्यायाधीशों को बार कौंसिल के व्यक्तिगत सदस्यों के साथ घनिष्ठ संबंध स्थापित करने से भी बचना चाहिए। 
  • भारत में न्यायाधीश के परिवार का कोई भी सदस्य यदि पेशे से वकील हैं, तो  उस न्यायाधीश को अपने परिवार के सदस्य वकील से संबंधित मामलों की सुनवाई करने से  बचना चाहिए  और साथ ही राजनीतिक मामलों पर सार्वजनिक बहस में भाग नहीं लेना चाहिए ।
  • भारत में न्यायाधीशों को वित्तीय लाभ के किसी भी प्रकार के कोई भी माध्यम नहीं खोजना चाहिए और उन्हें शेयरों में सट्टा नहीं लगाना चाहिए  अथवा किसी भी प्रकार का व्यापार अथवा व्यवसाय में  उन्हें संलग्न नहीं रहना चाहिए।
  • भारत में न्यायाधीशों को हमेशा इस बात के प्रति सचेत रहना चाहिए कि उनका जीवन और उनकी न्यायिक निर्णय हमेशा सार्वजनिक जाँच अर्थात जनता की आँखों के अधीन या सामने हैं।
  • अतः भारत में न्यायाधीशों को उनके कार्यों से जिस उच्च पद पर वे हैं, उसे भी लाभ  नही पहुँचना चाहिए।

समस्या का समाधान : 

सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों का आधिकारिक पद स्वीकार करने की समस्या के समाधान के रूप में निम्नलिखित संवैधानिक और न्यायिक सुधार किया जा सकता है – 

 

14वें विधि आयोग की सिफारिशों को लागू करना :  

  • 14वें विधि आयोग की रिपोर्ट, 1958 की सिफारिशों ने भारत की न्यायपालिका में न्यायाधीशों के साथ होने वाली इस प्रकार की समस्या का समाधान सुझाया है जो एक ऐसी प्रणाली को विकसित करने पर बल देता है। 
  • 14वें विधि आयोग की रिपोर्ट, 1958 की सिफारिशों में भारत की न्यायपालिका को किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता से समझौता किए बिना भी न्यायाधीशों को वित्तीय सुरक्षा प्रदान करना  सुनिश्चित करती है।

 

भारत की न्यायपालिका में पारदर्शिता में वृद्धि करना : 

  • भारत में सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद के आधिकारिक पदों पर नियुक्त करने की प्रक्रिया में अधिक पारदर्शिता बरतनी चाहिए। 
  • भारत में न्यायाधीशों को सेवानिवृत्ति के बाद के आधिकारिक पदों पर नियुक्त करने में चयन के मानदंडों का अत्यंत पारदर्शिता बरतते हुए सम्पूर्ण नियुक्ति की प्रक्रियाओ के लिए खुली प्रतिस्पर्द्धा सुनिश्चित करना चाहिए और इसके साथ – ही साथ प्रत्येक नियुक्ति के पीछे के कारणों को सार्वजनिक करना चाहिए। 

 

भारत की न्यायपालिकाओं में उच्च – न्यायिक नैतिकता एवं उच्च मानकों को बढ़ावा देने को सुनिश्चित करना :  

  • भारत में न्यायाधीशों के लिए उनके कार्यकाल के दौरान तथा सेवानिवृत्ति के बाद नैतिक दिशा-निर्देशों एवं मानकों को मज़बूत करने से न्यायपालिका की अखंडता और निष्पक्षता बनाए रखने में सहायता प्राप्त हो सकती है। 
  • न्यायाधीशों को व्यक्तिगत हितों के स्थान पर न्यायपालिका में जनता के विश्वास को प्राथमिकता देने के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।

भारत में कूलिंग-ऑफ अवधि को लागू करना अनिवार्य होना चाहिए  : 

 

  • भारत के उच्चतम न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश आर.एम.लोढ़ा के सुझाव के अनुशंसाओं के आधार पर न्यायाधीश की सेवानिवृत्ति एवं सेवानिवृत्ति के बाद किसी भी कार्यभार हेतु उनकी पात्रता के बीच एक अनिवार्य कूलिंग-ऑफ अवधि का होना अनिवार्य  होना चाहिए।
  • भारत में इस अनिवार्य कूलिंग-ऑफ अवधि का होना न्यायाधीशों या अन्य उच्च अधिकारियों के हितों के संभावित टकराव को कम करने के साथ निष्पक्षता सुनिश्चित करने में सहायता प्रदान करेगी। जिससे भारत में उच्च स्तरीय न्यायपालिका में या उच्च स्तरीय कार्यपालिका में भी निष्पक्षता और पारदर्शिता को बढ़ावा मिलेगा।  

 

निष्कर्ष : 

 

 

  • कोलकाता उच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश के न्यायपालिका के अपने पद से त्याग – पत्र देना और उनका राजनीति में प्रवेश करने का निर्णय भारत में उच्च स्तरीय न्यायपालिका में न्यायिक निष्पक्षता, स्वतंत्रता, हितों के संघर्ष, सार्वजनिक विश्वास एवं पेशेवर ज़िम्मेदारी के संबंध में महत्त्वपूर्ण नैतिक चिंताओं को व्यक्त करता है।
  • भारत में इन चिंताओं का मुख्य कारण भारत की न्यायपालिका की अखंडता और उसकी विश्वसनीयता पर दूरगामी प्रभाव को रेखांकित करताहै, जो भारत में न्याय और प्रशासन में उच्च नैतिक मानकों को बनाए रखने के महत्त्व को रेखांकित करता है।
  • अयोध्या में राम मंदिर निर्माण के मामले में निर्णय देने वाले उच्चतम न्यायालय के खंडपीठ के और भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गगोई को भारत के राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद द्वारा राज्यसभा के सदस्य के रूप में नामित किए जाने के बाद भी भारत में  न्यायपालिका की निष्पक्षता और न्यायिक सक्रियता के संबंध में सवाल खड़ा हुआ था। अतः भारत में सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों का आधिकारिक पद स्वीकार करने के नैतिक निहितार्थ को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने और न्यायिक निष्पक्षता, पारदर्शिता  और न्यायिक तटस्थता को सुनिश्चित किए जाने की जरूरत है, ताकि भारतीय जनता को उच्च न्यायपालिका के प्रति भरोसा रहे और उसे अपने साथ होने वाले किसी भी अन्याय या मौलिक अधिकारों के हनन के विरोध में प्रतिकार करने का साहस उत्पन्न हो सके और भारतीय नागरिक किसी भी प्रकार के अन्याय के खिलाफ कह सके कि – “ आई विल सी यू इन कोर्ट।” 
  • “ आई विल सी यू इन कोर्ट”  केवल एक नारा या कोटेशन नहीं है बल्कि यह भारतीय जनता का अपने साथ होने वाले न्याय का प्रतीकात्मक विश्वास और भारत के उच्च न्यायपालिका के भरोसे का प्रतीक है। अतः भारत में सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों का आधिकारिक पद स्वीकार करने से पूर्व यह सोचना चाहिए कि भारतीय जनता का अभी भी भारत की उच्च न्यायपालिका पर भरोसा कायम है। यही करना है किआज भी भारत में लोकतंत्र के बुनियादी तत्व और न्यायपालिका के प्रति भारत की जनता का विश्वास और भरोसा विद्यमान है। भारतीय जनता के इस भरोसे और विश्वास को जिंदा रखना उच्च न्यायपालिका और उच्च कार्यपालिका  के कंधों पर है । ताकि भारत में लोकतंत्र बना रहे और जनता का न्याय के प्रति विश्वास बना रहे । यही सच्चे अर्थों में लोकतंत्र की जीत है ।

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प्रारंभिक परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

Q.1. भारत में सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों का आधिकारिक पद स्वीकार करने के संबंध में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए। 

  1. भारत में न्यायाधीशों के लिए सेवानिवृति के पश्चात् कूलिंग-ऑफ अवधि के संबंध में भारत के उच्चतम न्यायालय के पूर्व सी.जे.आई, आर.एम.लोढ़ा ने कम-से-कम 2 वर्ष की कूलिंग-ऑफ अवधि की सिफारिश की थी।
  2. 14वें विधि आयोग की रिपोर्ट, 1958 की सिफारिशों में भारत की न्यायपालिका को किसी भी प्रकार की स्वतंत्रता से समझौता किए बिना भी  न्यायाधीशों को वित्तीय सुरक्षा प्रदान करना  सुनिश्चित करती है।

उपरोक्त कथन / कथनों में से कौन सा कथन सही है ? 

(A) केवल 1 

(B) केवल 2

(C) न तो 1 और न ही 2 

(D) उपरोक्त में से सभी।

 

उत्तर- (D) 

 

मुख्य परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न : 

Q.1. भारत में सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों का आधिकारिक पद स्वीकार करने के विभिन्न आयामों/ पहलूओं को रेखांकित करते हए यह चर्चा कीजिए कि भारत में सेवानिवृत्ति के बाद न्यायाधीशों का आधिकारिक पद स्वीकार करना संवैधानिक और उचित है अथवा असंवैधानिक और अनुचित ? तर्कसंगत विचार प्रस्तुत कीजिए

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