04 Nov स्वदेशी टैटू तकनीक
स्वदेशी टैटू तकनीक
संदर्भ- वर्तमान में प्रचलित टैटू फैशन, विदेशियों की देन नहीं है, यह संस्कृति भारतीय आदिवासियों में सदियों से चली आ रही है। जो विलुप्त होने के कगार पर है।
भारत में टैटू परंपरा-
- भारत में टैटू परंपरा सदियों से आदिवासी संस्कृति का अभिन्न अंग रही है।
- मध्य भारत में इसे गोदना के रूप में जाना जाता है। और दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में इसे पचकुछारथु कहा जाता है।
- टैटू बनाने की सामग्री पौधों से प्राप्त की जाती थी। जैसे सुई, छड़ी और रंग। जैसे रमटीला फसल का प्रयोग रंग बनाने के लिए किया जाता था।
स्वदेशी जनजातियों के लिए टैटू का महत्व-
आध्यात्मिक – बैगा जनजाति के महिलाओं व पुरुषों के लिए यह एकमात्र आभूषण हैं जिन्हें वे मृत्यु के बाद भी अपने साथ ले जा सकते हैं।
अलंकरण – बैगा संस्कृति में टैटू को 7-8 वर्ष में ही गोद दिया जाता है जबकि असम व अरुणांचल की सिंगपो जनजाति में इसे विवाह के बाद गोदा जाता है, वहां यह विवाहिता स्त्री की पहचान होता है। यह स्त्रियों में सोने चांदी के आभूषणों से अधिक महत्व प्राप्त करता है।
स्त्री सुरक्षा – अरुणांचल की अपटानी जनजातीय महिलाओं को पड़ोसी आदिवासियों से बचाने के लिए उनकी चेहरे की सुंदरता को खराब कर दिया जाता था। उनके चेहरे की त्वचा के कुछ हिस्से को निकालकर उसमें जानव का मांस भरा जाता था। इसी प्रकार की प्रथा बिहार के धनुक जनजाति में भी पाई जाती थी। इस प्रथा को 1970 के दशक में भारत सरकार द्वारा समाप्त कर दिया गया है।
चिकित्सीय महत्व- जोड़ों के दर्द में प्रयोग होने वाले एक्यूप्रेशर तकनीक को टैटू गोदने के माध्यम से किया जाता है।
ऐतिहासिक वीरता के प्रतीक – गौरवमयी इतिहास को याद रखने के लिए टैटू का प्रयोग किया जाता था, जैसे- मुण्डा जाति द्वारा मुगलों को पराजित करने पर मुण्डा पुरुषों ने अपने माथे पर तीन सीधी रेखाओं का उत्कीर्ण किया था।
आदिवासी संस्कार – आदिवासी महिलाएं व पुरुष अपने जीवन की महत्वपूर्ण गटनाओं को शरीर पर उत्कीर्ण कराते हैं। जो हिंदू संस्कार की तरह प्रतीत होता है। जैसे बैगा महिलाओं में-
- सीता रसोई – आठ साल की उम्र में वी(V) आकार की आकृति।
- पुखता गोदाई- 16 साल की उम्र में पीठ पर अंकन.
- झांग गोदाई – जांघों पर विवाह से पूर्व अंकन।
- छाती गोदाई- संतान होने पर।
- पोरी गोदाई- इसका अंकन अग्र बाहु पर किया जाता है, इसके बाद यह गोदाई का क्रम समाप्त हो जाता है।
टैटू करने की विधियाँ
नागा संस्कृति के पुनरोद्धारक मो नागा के अनुसार भारत में टैटू तीन प्रकार से बनाया जाता था।
हाथ से टैप करना– पूर्वोत्तर भारत की जनजाति में अधिकांश रूप से हाथ से टैप कर टैटू बनाए जाते थे। किंतु कुछ अवसरों में पोक कर कर भी टैटू बनाए जाते थे। टैप टैटू तकनीक में दो छड़ें होती हैं। एक छड़ में सुई संयोजित की गई होती है और दूसरी का प्रयोग पहली सुई को त्वचा में धकेलने के लिए किया जाता है। और रंगीन रंग के डिजाइन बनाने के लिए त्वचा में सुई से रंग को डाला जाता है।
हाथ से पोक करना– भारत के अन्य क्षेत्रों जैसे मध्य प्रदेश, झारखण्ड आदि में हाथ से पोककर टैटू बनवाए जाते थे। इस तकनीक में दोनों सुई एक साथ छड़ी से बंधी होती है। और सुई को रंग में डुबोकर त्वचा में प्रवेश कराया जाता है।
टंकण(hammering) द्वारा- टैटू की दुर्लभ विधियों में से एक प्रथा पूर्वोत्तर के नागा की संस्कृति में पाई जाती है। इसमें केवल एक सुई का प्रयोग किया जाता है और यह हैमर की तरह प्रयोग किया जाता है।
भारत में टैटू परंपरा का प्रचलन-
- मणिपुर की खोइबू जनजाति
- नीलगिरी की टोडा जनजाति
- मध्यप्रदेश की बैगा जनजाति
- गोंड जनजाति
- कोरकू जनजाति
- अरुणांचल प्रदेश की अपटानी जनजाति
- एओ नागा जनजाति आदि।
स्वदेशी टैटू के डिजाइन- टैटू की प्रत्येक आकृति के अंकन की मान्यता होती है, इन्हीं आकृतियों में बैल की आंख, चकमक, मछली की शल्क, मधुकोश आदि। इसी प्रकार दक्षिण भारत में कोल्लम एक विशिष्ट टैटू है, मान्यता है कि इस चिह्न के आसपास दुष्ट प्राणियों का आगमन नहीं होता। मुण्डा जाति में प्रचलित तीन खड़ी पंक्तियाँ वीरता को प्रकट करती है।
वर्तमान में पारंपरिक टैटू
फैशन के तौर पर टैटू अब भी प्रचलित है। पारंपरिक टैटू बनाने के लिए प्रयोग की जाने वाली वस्तुओं का स्थान अब आधुनिक तकनीकों ने ले लिया है। शरीर पर टैटू बनाने की पारंपरिक परम्परा अब लगभग समाप्त हो गई है।
वर्तमान में टैटू कलाकारों के कार्य में आई कमी के कारण उन्होंने अपनी कला को कागज, कैनवास और दीवारों पर बनाना प्रारंभ कर दिया है।
वर्तमान में भारत में भी न्यूयॉर्क व एम्स्टर्डम की तर्ज पर टैटू संग्रहालय बनाने की आवश्यकता है जिससे इस परंपरा को समाप्त होने से बचाया जा सके।
स्रोत
https://bit.ly/3sWOhWP (इण्डियन एक्सप्रैस)
https://indianculture.gov.in/hi/snippets/taaitauu-paranparaaen
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