19 Dec दल -बदल विरोधी कानून की वर्तमान प्रासंगिकता :
( यह लेख ‘ इंडियन एक्सप्रेस ’, ‘ द हिन्दू’ , ‘ जनसत्ता ’ , ‘ संसद टीवी के कार्यक्रम सरोकार ’ मासिक पत्रिका ‘वर्ल्ड फोकस’ और ‘ पीआईबी ’ के सम्मिलित संपादकीय के संक्षिप्त सारांश से संबंधित है। इसमें योजना IAS टीम के सुझाव भी शामिल हैं। यह लेख यूपीएससी सिविल सेवा परीक्षा के विशेषकर ‘ भारतीय राजव्यवस्था और शासन ’ खंड से संबंधित है। यह लेख ‘ दैनिक करंट अफेयर्स ’ के अंतर्गत ‘ दल -बदल विरोधी कानून की वर्तमान प्रासंगिकता’ , संविधान की दसवीं अनुसूची, नियामक और विभिन्न अर्द्ध-न्यायिक निकाय, विभिन्न अंगों के मध्य शक्तियों का पृथक्करण 52वाँ संविधान संशोधन अधिनियम 1985, 91वाँ संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2003 से संबंधित है।)
सामान्य अध्ययन – भारतीय राजव्यवस्था और शासन।
चर्चा में क्यों?
हाल ही में उच्चत्तम न्यायालय ने मुख्यमंत्री और अन्य विधायकों के विरुद्ध दल-बदल विरोधी प्रक्रिया को लंबा खींचने के लिये महाराष्ट्र विधानसभा अध्यक्ष को फटकार लगाई।
- उच्चत्तम न्यायालय ने महाराष्ट्र में चुनाव प्रक्रिया समाप्त होने के बावजूद भी सरकार का गठन नहीं हो पाने की स्थिति में विधायकों की अयोग्यता की कार्यवाही की प्रगति में कमी पर असंतोष व्यक्त किया था और अध्यक्ष से दो महीने के अंदर निर्णय लेने का आग्रह किया था ।
- इससे पहले उच्चत्तम न्यायालय ने विधानसभा अध्यक्ष को संविधान की दसवीं अनुसूची के तहत विधायकों की योग्यता की कार्यवाही को पूरा करने के लिये एक समय-सीमा तय करने का निर्देश दिया था।
दल-बदल विरोधी कानून की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि :
परिचय:
- दल-बदल विरोधी कानून एक पार्टी छोड़कर दूसरी पार्टी में जाने पर संसद सदस्यों (सांसदों)/ विधानसभा सदस्यों (विधायकों) को दंडित करने का प्रावधान करता है।
- विधायकों को दल बदलने से हतोत्साहित करके सरकारों में स्थिरता लाने के लिए संसद ने वर्ष 1985 में इसे संविधान की दसवीं अनुसूची के रूप में जोड़ा।
- दसवीं अनुसूची – जिसे दल-बदल विरोधी अधिनियम के नाम से भी जाना जाता है, को 52वें संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से संविधान में शामिल किया गया था।
- यह किसी अन्य राजनीतिक दल में दल-बदल के आधार पर निर्वाचित सदस्यों की अयोग्यता के प्रावधान निर्धारित करता है।
- भारत में वर्ष 1967 के आम चुनावों के बाद अपनी पार्टी को छोड़कर दूसरे पार्टी में जाने वाले विधायकों द्वारा कई राज्यों में राज्य सरकारों को गिराने का प्रचलन बहुतायत रूप से देश में देखने को मिला था ।
इसके तहत सांसद/विधायकों को दंडित नहीं किया जाता:
- दल-बदल विरोधी कानून सांसदों/ विधायकों को दल-बदल के लिए दंड के बिना किसी अन्य राजनीतिक दल में शामिल होने (विलय) की अनुमति तो देता है , लेकिन इसमें दल-बदल करने वाले सांसदों का समर्थन या उन्हें स्वीकार करने के लिए राजनीतिक दलों को दंडित नहीं किया जाता है।
- वर्ष 1985 के अधिनियम के अनुसार, किसी राजनीतिक दल के एक-तिहाई निर्वाचित सदस्यों द्वारा किया जाने वाला ‘दल-बदल‘ को ‘विलय’ माना जाता था।
- दल-बदल विरोधी कानून में 91वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2003 द्वारा एक महत्वपूर्ण बदलाव यह कर दिया गया कि अब कानून की दृष्टिकोण से वैधता के लिए किसी पार्टी के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों को ‘ विलय ’ के पक्ष में होना अनिवार्य है।
- इस कानून के तहत अयोग्य घोषित सदस्य किसी भी राजनीतिक दल से उसी सदन की एक सीट के लिए चुनाव लड़ सकता है।
- दल-बदल के आधार पर अयोग्यता से संबंधित मामलों पर निर्णय आमतौर पर सदन के सभापति अथवा अध्यक्ष को प्रेषित किया जाता है, यह प्रक्रिया ‘न्यायिक समीक्षा‘ के अधीन आता है।
- दल-बदल विरोधी कानून हालाँकि ऐसी कोई समय-सीमा निर्धारित नहीं करता है, जिस समय – सीमा के भीतर पीठासीन अधिकारी को दल-बदल मामले का फैसला करना अनिवार्य होता है।
दल-बदल का आधार:
- स्वैच्छिक त्याग: यदि कोई निर्वाचित सदस्य स्वेच्छा से किसी राजनीतिक दल की सदस्यता छोड़ना चाहता है।
- निर्देशों का उल्लंघन: यदि कोई निर्वाचित सदस्य अपने राजनीतिक दल अथवा ऐसा करने के लिये अधिकृत किसी भी व्यक्ति द्वारा पूर्व अनुमोदन के बिना जारी किये गए किसी आदेश के विपरीत ऐसे सदन में मतदान करता है अथवा मतदान से अनुपस्थित रहता है।
- निर्वाचित सदस्य: यदि कोई स्वतंत्र रूप से निर्वाचित सदस्य किसी राजनीतिक दल में शामिल होता है।
- मनोनीत सदस्य: यदि कोई नामांकित सदस्य छह महीने की समाप्ति के बाद किसी भी राजनीतिक दल में शामिल होता है।
दलबदल का राजनीतिक व्यवस्था पर प्रभाव:
चुनावी जनादेश का उल्लंघन:
- जो विधायक एक पार्टी के लिये चुने जाते हैं और फिर मंत्री पद या वित्तीय लाभ के प्रलोभन के कारण दूसरी पार्टी में जाना अधिक सुविधाजनक समझते हैं तथा पार्टी बदल लेते हैं, इसे दल-बदल के रूप में जाना जाता है, यह चुनावी जनादेश का उल्लंघन माना जाता है।
सरकार के सामान्य कामकाज़ पर प्रभाव:
- वर्ष 1967 में गया लाल नामक एक व्यक्ति हरियाणा के पलवल जिले के हसनपुर विधानसभा क्षेत्र से विधायक चुने गए थे। उन्होंने एक ही दिन में तीन बार पार्टी बदली। पहले तो उन्होंने कांग्रेस का हाथ छोड़कर जनता पार्टी का दामन थाम लिया। फिर थोड़ी ही देर में कांग्रेस में वापस आ गए। करीब 9 घंटे बाद उनका हृदय परिवर्तन हुआ और एक बार फिर जनता पार्टी में चले वापस गए। गया लाल के हृदय में फिर से परिवर्तन हुआ और वे वापस कांग्रेस में आ गए। कांग्रेस में वापस आने के बाद कांग्रेस के तत्कालीन नेता राव बीरेंद्र सिंह उनको लेकर चंडीगढ़ पहुंचे और वहां एक संवाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा था कि – ‘गया राम अब आया राम हैं।‘ इस घटना के बाद से भारतीय राजनीति में ही नहीं बल्कि आम जीवन में भी पाला बदलने वाले दलबदलूओं के लिए ‘आया राम, गया राम’ वाक्य का प्रयोग होने लगा।
- कुख्यात “आया राम, गया राम” नारा 1960 के दशक में विधायकों द्वारा लगातार दल-बदल की पृष्ठभूमि में गढ़ा गया था।
- दल-बदल के कारण किसी भी सरकार में अस्थिरता की स्थिति उत्पन्न होती है और प्रशासन और प्रशासनिक कार्य प्रभावित होता है।
हॉर्स ट्रेडिंग को बढ़ावा:
- दल-बदल कानून सांसदों/ विधायकों की खरीद-फरोख्त/ हॉर्स ट्रेडिंग को बढ़ावा देता है जो स्पष्ट रूप से लोकतांत्रिक व्यवस्था के जनादेश के खिलाफ है।
वर्तमान सन्दर्भ और इस कानून से जुड़े प्रमुख बिन्दु:
- वर्ष 2022 में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व वाली सरकार को गिरा दिया गया और उसकी जगह दूसरी सरकार का गठन हुआ, जिसमें शिवसेना का एक गुट शामिल था। शिवसेना से अलग हुए गुट के नेता एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के नए मुख्यमंत्री बने।
- इसके बाद ठाकरे समूह द्वारा महाराष्ट्र के तत्कालीन राज्यपाल के इस्तीफे से पूर्व विश्वास प्रस्ताव के निर्णय को चुनौती देते हुए याचिकाएँ दायर की गईं।
- विधायकों की अयोग्यता की स्थिति में न केवल शिवसेना विधायकों पर बल्कि मुख्यमंत्री के रूप में शिंदे के पद पर भी इसका असर पड़ेगा।
- हाल के वर्षों में राजस्थान , मध्यप्रदेश, झारखण्ड और हिमाचल प्रदेश में भी विधायकों की खरीद – फरोख्त करके सरकार गठन करने / बनाने की कोशिश की गई थी , जो जनादेश के विरुद्ध था ।
दल-बदल विरोधी कानून की चुनौतियाँ:
- कानून का पैराग्राफ 4: दल-बदल विरोधी कानून के पैराग्राफ 4 में कहा गया है कि यदि कोई राजनीतिक दल किसी अन्य दल में विलय करता है, तो उसके सदस्य अपनी सीटें नहीं खोएंगे।
- इस विलय के लिए सदन में उस पार्टी के पास कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों का समर्थन होना ज़रूरी है। यह कानून यह नहीं बताता है कि विलय करने वाली पार्टी का राष्ट्रीय या क्षेत्रीय स्तर पर आधार है या नहीं।
प्रतिनिधि एवं संसदीय लोकतंत्र को कमज़ोर करना:
- कानून बनने के बाद सांसद या विधायक को पार्टी के निर्देशों का आँख मूंदकर पालन करना पड़ता है और उन्हें अपने निर्णय से वोट देने की आज़ादी नहीं होती है।
- दल-बदल विरोधी कानून ने विधायकों को मुख्य रूप से उनके राजनीतिक दल के प्रति ज़िम्मेदार ठहराकर जवाबदेही की शृंखला को बाधित कर दिया है।
अध्यक्ष की विवादास्पद भूमिका:
- दल-बदल विरोधी मामलों में सदन के सभापति या अध्यक्ष के निर्णय की समय-सीमा से संबंधित कानून में कोई स्पष्टता नहीं है।
- कुछ मामलों में छह महीने और कुछ में तीन वर्ष भी लग जाते हैं। कुछ ऐसे मामले भी हैं जो अवधि समाप्त होने के बाद निपटाए जाते हैं।
विभाजन की कोई मान्यता नहीं:
- 91वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम 2004 के कारण दल-बदल विरोधी कानून ने दल-बदल विरोधी शासन को एक अपवाद बना दिया है । हालाँकि यह संशोधन किसी पार्टी में ‘विभाजन’ को कभी भी मान्यता नहीं देता है बल्कि इसके बजाए यह संशोधन ‘विलय’ को मान्यता देता है।
केवल सामूहिक दल-बदल की अनुमति:
- यह सामूहिक दल-बदल (एक साथ कई सदस्यों द्वारा दल परिवर्तन) की अनुमति देता है लेकिन व्यक्तिगत दल-बदल (बारी-बारी से या एक-एक करके सदस्यों द्वारा दल परिवर्तन) की अनुमति नहीं देता। अतः इसमें निहित खामियों को दूर करने के लिये संशोधन की आवश्यकता है।
- उन्होंने चिंता जताई कि यदि कोई राजनेता किसी पार्टी को छोड़ता है, तो वह ऐसा कर सकता है, लेकिन उस अवधि के दौरान उसे नई पार्टी में कोई पद नहीं दिया जाना चाहिये।
सदन की बहस एवं चर्चा पर प्रभाव:
- भारत के दल-बदल विरोधी कानून ने सदन की बहस और चर्चा को बढ़ावा देने के बजाय ‘पार्टियों’ और ‘आँकड़ों / संख्या बल ’ पर आधारित लोकतंत्र का निर्माण किया है।
- इससे संसद या विधानसभा में किसी भी कानून पर होने वाली बहस कमज़ोर हो जाती है तथा असहमति (Dissent) एवं दल बदल (Defection) के बीच अंतर नहीं रह जाता है।
समाधान / आगे की राह:
- कई संविधान विशेषज्ञों ने सुझाव दिया है कि यह कानून केवल उन वोटों के लिए मान्य होना चाहिए जो सरकार की स्थिरता का निर्धारण करते हैं। उदाहरण के लिए – वार्षिक बजट का अनुमोदन अथवा अविश्वास प्रस्ताव पारित होना।
- राष्ट्रीय संविधान प्रकार्य समीक्षा आयोग (NCRWC) सहित विभिन्न आयोगों ने सिफारिश की है कि किसी सांसद/ संसद सदस्य या विधायक को अयोग्य घोषित करने का निर्णय पीठासीन अधिकारी के बजाय राष्ट्रपति (सांसदों के मामले में) अथवा राज्यपाल (विधायकों के मामले में) द्वारा चुनाव आयोग की सलाह पर किया जाना चाहिए।
- होलोहन के फैसले में न्यायमूर्ति वर्मा ने कहा कि अध्यक्ष ऐसे स्वतंत्र न्यायिक प्राधिकरण के मानदंडों को पूरा नहीं करते हैं क्योंकि उनका कार्यकाल सदन में बहुमत के निरंतर समर्थन पर निर्भर है।
- अनुच्छेद 4 को हटाने के लिए विधि आयोग, 1999 और NCRWC, 2002 की सिफारिशों का पालन करने की दिशा में कार्य करने की जरुरत है।
- वर्तमान समय की राजनीतिक अस्थिरता को रोकने के लिए दल – बदल विरोधी कानून के भविष्य में उपयोग का मार्गदर्शन करने के लिए सर्वोच्च न्यायालय द्वारा भारतीय संविधान की दसवीं अनुसूची का अकादमिक पुनर्वालोकन करने की जरुरत है।
Download yojna daily current affairs hindi med 19th DEC 2023
प्रारंभिक परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न :
Q. 1. भारत में दल-बदल विरोधी कानून के संदर्भ में निम्नलिखित कथनों पर विचार कीजिए।
- यह भारत के संविधान की संविधान की दसवीं अनुसूची के रूप में उल्लिखित है।
- इसे 52वें संशोधन अधिनियम, 1985 के माध्यम से संविधान में शामिल किया गया था।
- 91वें संवैधानिक संशोधन अधिनियम, 2003 द्वारा कानून की दृष्टिकोण से वैधता के लिए किसी पार्टी के कम-से-कम दो-तिहाई सदस्यों को ‘ विलय’ के पक्ष में होना अनिवार्य है।
- भारत के दल-बदल विरोधी कानून से सदन की बहस और चर्चा में असहमति (Dissent) एवं दल बदल (Defection) के बीच अंतर नहीं रह जाता है।
उपरोक्त कथन / कथनों में से कौन सा कथन सत्य है ?
(a). केवल 1 , 3 और 4
(b). केवल 2 , 3 और 4
(c). इनमें से कोई नहीं ।
(d). उपरोक्त सभी ।
उत्तर – (d)
मुख्य परीक्षा के लिए अभ्यास प्रश्न :
Q. 1. भारत में नीतिगत निर्माण मामलों में प्रायः स्वस्थ रचनात्मक बहसों का अभाव देखा जा रहा है। दल-बदल विरोधी कानून को इसके लिए कहाँ तक जिम्मेवार माना जा सकता है ? क्या आप इस बात से सहमत हैं कि लोकसभा अध्यक्ष पद की निष्पक्षता के लिए दल-बदल विरोधी कानून को और तर्कसंगत और प्रासंगिक बनाए जाने की जरुरत है ? तर्कसंगत मत प्रस्तुत करें।
Qualified Preliminary and Main Examination ( Written ) and Shortlisted for Personality Test (INTERVIEW) three times Of UPSC CIVIL SERVICES EXAMINATION in the year of 2017, 2018 and 2020. Shortlisted for Personality Test (INTERVIEW) of 64th and 67th BPSC CIVIL SERVICES EXAMINATION.
M. A M. Phil and Ph. D From (SLL & CS) JAWAHARLAL NEHRU UNIVERSITY, NEW DELHI.
No Comments