अम्बेडकर जयंती

अम्बेडकर जयंती

अम्बेडकर जयंती

संदर्भ- समस्त भारतवर्ष में 14 अप्रैल को अम्बेडकर जयंती मनाई गई। जिसमें बाबा साहेब अम्बेडकर के विचारों व कार्यों को याद किया जा रहा है। अम्बेडकर के दलित सुधार, संविधान निर्माण, भारतीय़ अर्थव्यवस्था में उनके योगदान के साथ भारत में पृथक निर्वाचन के मुद्दे के लिए भी याद किया जाता है।

पृथक निर्वाचन 

भारत में जाति-आधारित आरक्षण की एक प्रणाली है जो ऐतिहासिक रूप से सामाजिक और आर्थिक भेदभाव का अनुभव करने वाली जातियों के लोगों के लिए एक निश्चित संख्या में सीटें निर्धारित करती है। आरक्षण उच्च शिक्षा, सरकारी नौकरियों और राजनीतिक कार्यालयों में प्रवेश व नौकरी प्राप्त करने हेतु लागू किए जाते हैं। संसद सहित सभी विधायी निकायों में अनुसूचित जातियों (SCs) और (STs) के लिए एक निश्चित संख्या में सीटें आरक्षित हैं। 

पृथक निर्वाचन मण्डल के तहत एक निर्वाचन मण्डल से जाति के आधार पर प्रतिनिधि होते हैं। और प्रत्येक प्रतिनिधि जाति के आधार पर ही मत प्राप्त करता है। अर्थात प्रतिनिधि को उसकी जाति के लोग ही मत करते हैं। इस प्रकार यह चुनाव बहुसंख्यक जाति के पक्ष में होता है। भारत में 1930 के दशक में पृथक निर्वाचन के मुद्दा सामने आया था।

अम्बेडकर के समय दलितों की स्थिति

  • वर्तमान में अनुसूचित जाति के अंतर्गत आने वाली जाति को दलित कहा जाता है। 
  • अम्बेडकर के काल में प्रत्येक धर्म में शोषित वर्ग उपस्थित था।
  • दलितों को उसके सामान्य प्राकृतिक अधिकारों से वंचित किया गया था। समाज में वे अस्पृश्य थे।
  • भारत में पुनर्जागरण के दौर में अम्बेडकर सहित कई अन्य समाजसुधारकों ने भी दलितों की स्थिति को सुधारने प्रयास किए। 

अम्बेडकर की दृष्टि में जाति व्यवस्था- 

दैवीय प्रकृति के रूप में विश्वास –हिंदू समाज में जाति व्यवस्था को भगवान द्वारा निर्मित व्यवस्था के रूप में माना जाता था। यह विश्वास शोषितों द्वारा उसी श्रद्धा से माना जाता था जितना कि शोषकों द्वारा। अम्बेडकर के अनुसार, जाति व्यवस्था के खिलाफ कोई भी विद्रोह तभी संभव होगा, जब उत्पीड़ितों ने स्वयं अपनी स्थिति और उत्पीड़न को दैवीय आदेश के रूप में खारिज कर दिया हो।

जाति व्यवस्था के प्रति निष्क्रियता –अम्बेडकर के अनुसार समकालीन उच्च जाति के हिंदुओं द्वारा समर्थित सुधारवाद में भेदभाव समाप्त करने के नगण्य प्रयास किए। जिनका कोई प्रभाव नहीं दिखाई देता है।

राजनीतिक शक्ति की आवश्यकता-  तत्कालीन समाज में दलितों या निम्न वर्ण के लोगों के पास सामान्य अधिकार नहीं थे। अतः बिना अधिकार के वे अपनी स्थिति में सुधार नहीं ला सकते थे। बाबासाहेब के अनुसार-

“कोई भी आपकी शिकायतों को दूर नहीं कर सकता है और आप भी उन्हें तब तक दूर नहीं कर सकते जब तक कि आपके हाथों में राजनीतिक शक्ति न हो।”

अम्बेडकर के प्रयास

पृथक निर्वाचन मण्डल की पृष्ठभूमि भारत में दलितों के हालातों के प्रति जागरुकता के साथ आई। भीमराव अम्बेडकर ने जाति व्यवस्था की समस्याओं को जनता व तत्कालीन सरकार के समक्ष रखा। 

साउथबरो समिति

वर्ष 1919 में आयोजित साउथबरो समिति में सर्वप्रथम अम्बेडकर ने निम्न जाति व भिन्न धर्मों के पृथक निर्वाचन मण्डल की मांग रखी। पृथक निर्वाचन मण्डल के लिए तर्क दिया गया था कि ब्राह्मणेत्तर या निम्न जातियों को मताधिकार प्राप्त नहीं है, यदि प्रत्येक समूह का पृथक निर्वाचन हो तो-

  • देश में समान रूप से मताधिकार प्राप्त होगा।
  • आरक्षण की मांग समाप्त हो जाएगी।
  • दलित, स्वयं की स्थिति में सुधार करने के लिए प्रेरित होंगे।
  • अस्पृश्यता समाप्त हो सकेगी। 

गोलमेज सम्मेलन- 

  • प्रथम गोलमेज सम्मेलन में अम्बेडकर ने दलितों का नेतृत्व किया। इसमें उन्होंने समाज में दलितों की स्थिति में सुधार की आवश्यकता व प्रतिनिधित्व की पैरवी की।
  • द्वितीय गोलमेज सम्मेलन(16 अगस्त 1932) में दलितों के प्रतिनिधित्व को सहमति प्राप्त हुई, अर्थात पृथक निर्वाचन मण्डल की मांग स्वीकार कर ली गई। इस सम्मेलन में अम्बेडकर के साथ गांधीजी ने भी भाग लिया था, जिसके बाद गांधीजी और अम्बेडकर के विचारों में मतभेद उत्पन्न हुआ था। 

 पृथक निर्वाचन पर गांधी जी के विचार

  • गांधी जी दलितों की दयनीय स्थिति के लिए सहानुभूति रखते थे। 
  • गांधीजी अस्पृश्यता को समाप्त करने के लिए प्रयास करना चाहते थे, किंतु वे पृथक निर्वाचन के खिलाफ थे।
  • गांधी जी ने तर्क दिया कि दलितों को केवल अपनी जाति तक सीमित रहने के बजाय पूरी दुनियाँ पर राज करने की सोच रखनी चाहिए। 
  • गांधी जी का मानना था कि इस प्रकार पृथक्करण की नीति से हिंदू धर्म कमजोर हो सकता है।
  • उनके अनुसार पृथक निर्वाचन की नीति केवल अंग्रेजों के फूट डालो और राज करों की नीति को समर्थन ही दे सकता है। जो उस समय हिंदू मुस्लिम सम्प्रदायों में बढ़ते बैर के दौर में भी अनुकूल नहीं था। यह भारत को समाप्त करने के लिए एक कील की भांति हो सकता है।

पूना पैक्ट

गोलमेज सम्मेलन में दलितों को मिले पृथक निर्वाचन मण्डल का गांधीजी ने पूना की यरवदा जेल में अंग्रेज अधिकारियों को लिखे पत्रों द्वारा लगातार विरोध किया। किंतु उनके विरोध का कोई प्रभाव न होने पर उन्होंने पूना की यरवदा जेल में पृथक निर्वाचन मण्डल के खिलाफ अनशन प्रारंभ कर दिया। उनके अनशन के काऱण अम्बेडकर पर भारी दबाव बना जिससे 24 सितंबर 1932 को अम्बेडकर व हिंदू प्रतिनिधियों के बीच पृथक निर्वाचन के विचार को त्यागने के लिए समझौता हो गया। जिसे पूना पैक्ट भी कहा जाता है। इसके तहत- 

  • प्रांतीय विधानमण्डल में 147 सीट दलितों के लिए आरक्षित की गई।
  • दलित वर्ग को उनकी योग्यता के अनुसार स्थानीय व प्रशासनिक सेवाओं में उचित प्रतिनिधित्व दिया गय।
  • इस समझौते के तहत दलितों की योग्यता व कम प्रतिनिधित्व के आधार पर प्रयाप्त प्रतिनिधित्व व आरक्षण दिया गय।
  • अम्बेडकर के नेतृत्व में दलितों ने पूना समझौते को स्वीकार कर लिया।

संविधान में दलितों की स्थिति

  • भीमराव अम्बेडकर को भारतीय संविधान का जनक कहा जाता है जिन्होंने दलितों या निम्न वर्ग को मुख्य धारा में लाने के लिए कई प्रयास किए। 
  • भारतीय संविधान में इन अल्पसंख्यक या दलित जाति को अनुसूचित जाति कहा गया है,
  • अनुसूचित जाति की संविधान में कोई परिभाषा उपलब्ध नहीं है। किंतु अनुच्छेद 341 व 342 में राष्ट्रपति को इन जातियों को सूचित करने की शक्ति प्रदान की गई है। 

समानता का अधिकार- अनुच्छेद 14-18- संविधान में भारत के सभी नागरिकों को समानता का अधिकार दिया गया था। जिसके तहत किसी भी नागरिक के साथ धर्म, वंश , जाति ,लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं किया जाएगा। अनुच्छेद 17 में अस्पृश्यता का अंत करने की घोषणा की गई है। 

अनुच्छेद 332- भारत के संविधान के अनुच्छेद 332 में लोकसभा व विधानसभा में अनुसूचित जाति के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है। संविधान में दिया गया कोई भी आरक्षण को स्थायी नहीं किया गया है, इसके तहत आरक्षण को समानता लाने की अवधि तक लागू किया जाएगा। प्रारंभ में इसकी अवधि 10 वर्ष निर्धारित की गई थी। जिसकी अवधि संशोधनों के साथ बढ़ती गई। 

स्रोत

Indian Express

Live law

yojnaias.com

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