प्राचीन भारतीय चिकित्सा

प्राचीन भारतीय चिकित्सा

प्राचीन भारतीय चिकित्सा

संदर्भ – हाल ही में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग ने प्राचीन भारत में ज्ञान की एक शाखा जिसे आज विज्ञान कहा जाता है के विभिन्न विषयों के बारे में अनुसंधान करने के लिए विश्वविद्यालयों को प्रोत्साहित करने की सलाह दी। आयोग ने आधुनिक चिकित्सा के छात्रों को भी कम से कम आयुर्वेद व सिद्ध सहित चिकित्सा की भारतीय प्रणाली पर क्रेडिट पाठ्यक्रम लेने के लिए प्रेरित किया।

प्राचीन भारत में विज्ञान – प्राचीनकाल में भारत को विश्वगुरु माना जाता था यह केवल शब्दों में नहीं वरन तथ्यों से साबित हो चुका है। भारत के प्राचीन स्रोतों से प्राप्त जानकारी आधुनिक काल को दिशा देने वाली प्रतीत होती है। जिसमें विभिन्न आविष्कारों के साथ विज्ञान के अनुप्रयोग प्राप्त होते हैं। प्रस्तुत लेख भारत के चिकित्सा शास्त्र पर आधारित है।

चिकित्सा विज्ञान-

हाल ही में आई कोविड महामारी के दौरान वैश्विक स्तर पर महामारी के हल के लिए चिकित्सकों व विशेषज्ञों द्वारा  शोध किए जा रहे थे और एक सटीक उपचार के लिए चर्चाएं की जा रही थी।विश्व की प्रथम चिकित्सा संगोष्ठी का आयोजन सर्वप्रथम(700ई.पू.) भारत में ही ऋषि भारद्वाज द्वारा किया गया। जिसका उल्लेख चरक संहिता(आयुर्वेद की शाखा) में किया गया है। 

ऋषि भारद्वाज को आयुर्वेद नामक चिकित्सा शाखा का प्रतिपादक भी कहा जाता है। आयुर्वेद में चिकित्सा के लिए मानव रोगों और उसके उपचारों के अनुभव के आधार भविष्य में चिकित्सा की जाती थी जिसे वर्तमान में Medical Practice कहा जाता है। 

वैदिक काल में चिकित्सा शास्त्र को उसकी विशिष्ट क्षेत्रों की विशेषज्ञता के आधार बांटा गया है आज भी विशेषज्ञों को इसी आधार पर बांटा जाता है-

  • शल्य वैद्य(सर्जन)
  • भिषक(फिजीशियन)
  • भिषगथर्वन(पुजारी चिकित्सक)

महाभारत काल में चिकित्साशास्त्र के वेदिककालीन विभाजन के साथ कुछ अलग शाखा का निर्माण हुआ. जैसे-

  • रोगहर (फिजीशियन)
  • शल्यहर (सर्जन)
  • विषहर (जहर का इलाज करने वाले)
  • कृत्यहर(भूतवैद्य)
  • भिषगथर्वन(पुजारी चिकित्सक) आदि।

इन सभी शाखाओं में सुश्रुत की शल्य चिकित्सा को सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

शल्य चिकित्सा प्राचीन शल्य चिकित्सा का ज्ञान सुश्रुत के सुक्षुत संहिता के द्वारा प्राप्त होता है। संहिता में सुश्रुत के प्रयोगों और उसके द्वारा अपनाए गए शल्य उपकरणों का उल्लेख किया गया है। 

शल्य चिकित्सा में प्रयुक्त उपकरण थे-

  •  प्रयोग के लिए पशु या मानव का मृत शरीर
  • शल्य चिकित्सा में प्रयुक्त औजारों के नाम पशु पक्षियों के मुंह अथवा चोंच की आकृति के होते थे। और उन्हीं के नाम के उपकरणों का वर्णन संहिता में किया गया है। 

शल्य क्रियाविधि

शल्य क्रियविधि करने से पूर्व रोगी को हल्का भोजन करने की सलाह दी गई है। चिकित्सा कक्ष में चिकित्सा से पूर्व सफेद सरसों, राल, नीम की पत्तियां व साल वृक्ष के गोंद का धुंआ देना चाहिए। वर्तमान में इस क्रिया के लिए एंटीसेप्टिक दिया जाता है। सभी प्रकार की शल्य विधि मानक संचालन क्रिया अथवा SOP के अनुसार की जाती थी- 

  • आहार्य(ठोस देह को निकालना),
  • भेद्य( भेदना)
  • छेद्य (छेदना)
  • विस्त्राव्य (द्रव निकालना)

सुश्रुत संहिता में वर्णित कुछ शल्य चिकित्सा

  • कान की सर्जरी
  • मोतियाबिंद 
  • हार्निया
  • पथरी
  • आंख का ऑपरेशन आदि

सिद्ध चिकित्सा

सिद्ध चिकित्सा को विश्व की सबसे प्राचीन चिकित्सा माना जाता है। भारत में इस पद्धति का स्रोत शिव को माना जाता है, कहा जता है कि शिव ही सबसे प्राचीन सिद्ध हैं। 

  • इस पद्धति को सर्वप्रथम भारत के तमिलनाडु राज्य में 18 सिद्धों ने विकसित किया था। उत्तर भारत में इस पद्धति को 9 नाथों व 84 सिद्धों द्वारा विकसित माना जाता है। 
  • यह आयुर्विज्ञान की एक शाखा है जिसमें रसायनों का निर्माण व प्रयोग औषधि के लिए किया जाता है। सिद्ध प्रणाली आकस्मिक रोगों के इलाज को छोड़कर सभी प्रकार के रोगों में सहायक होती है।
  •  तमिल संगम साहित्य के ग्रंथ थिरुक्कुरल में इस प्रकार की चिकित्सा का उल्लेख किया है।

सिद्ध चिकित्सा के निदान की प्रक्रिया-

  • सर्वप्रथम रोग के प्रकार जैसे – तीन देहद्रव का बिगड़ना(वात,पित्त,कफ), सूक्ष्म प्रभाव, जहरीले प्रभाव, मनोवैज्ञानिक, आध्यात्मिक या वंशानुगत आदि की पहचान की जाती है।
  • रोग का पाँच इन्द्रियों के माध्यम से निरीक्षण किया जाता है, इस प्रक्रिया को पोरियालारिथल व पुलानालाऱिथल कहा जाता है।
  •  निदान के लिए 8 गुना पद्धति का प्रयोग किया जाता है- ना, नीरम,मोझी, विझी, मझम, मथीराम, नाडी, स्परिसम। 
  • समस्त प्रक्रिया में मूत्र परीक्षण व पल्स रीडिंग महत्वपूर्ण होता है। 

होम्योपैथी-

केंद्रीय होम्योपैथी अनुसंधान केंद्र के अनुसार भारत में होम्योपैथी की शुरुआत लगभग 200 वर्ष पूर्व की गई थी।

  • होम्योपैथी की खोज जर्मन चिकित्सक सैमुएल हैनीमैन द्वारा की गई थी। 
  • यह पद्धति समः, समम्, समयति सिद्धांत पर आधारित है। जो समरूपता के सिद्धांत को निरुपित करता है। 
  • इस उपचार के प्रयोग में रोगी के लक्षणों के समान लक्षण स्वस्थ व्यक्ति में उत्पन्न किए जाते हैं। जिसके बाद समरुपता व सापेक्षता के आधार पर रोग का उपचार किया जाता है।
  • होम्योपैथी दवाओं को पौंधों, पशुओं व खनिजों से निर्मित किया जाता है, जिनका कोई दुष्प्रभाव नहीं होता है। 
  • भारत का पहला होम्योपैथी कॉलेज, कलकत्ता में स्थापित किया गया था। 
  • भारत में आयुर्वेद, होम्योपैथी, सिद्ध आदि पद्धति में अनुसंधान व विकास के लिए आयुष संस्था कार्य कर रही है।  

चिकित्सा क्षेत्र की वर्तमान चुनौतियाँ

  • निरंतर दूषित हो रहे पर्यावरण के कारण श्वास संबंधी समस्याएं पनप सकती हैं।
  • भविष्य में भारत में वृद्धों की संख्या में बढ़ोतरी होने की संभावना के साथ रोगों में बढ़ोतरी चिकित्सा व्यवस्था पर बोझ बढ़ाएगा। 
  • कोविड-19 जैसे नए रोगों का आविर्भाव और उससे उपजी आपतकालीन स्थिति चिकित्सा क्षेत्र के लिए नई चुनौती उत्पन्न कर रही है।

चिकित्सा क्षेत्र के लिए आगे की राह-

  • वर्तमान में प्रयुक्त चिकित्सा पद्धति भारतीय इतिहास में मौजूद थी। वर्तमान में प्राचीन चिकित्सा का अध्ययन असाध्य रोगों के उपचार के लिए कुछ समाधानों के संकेत दे सकती है। 
  • आदिवासी व जनजाति समुदायों में प्रचलित चिकित्सीय पद्धतियों का अध्ययन को भी सामुदायिक शिक्षा में शामिल किया जा सकता है। इन चिकित्सा पद्धतियों के उपयोगी पहलुओं को वर्तमान चिकित्सा पद्धतियों में किया जा सकता है। 
  • बर्लिन के डाक्टर हिर्शबर्ग का कहना है कि ‘यूरोप की समग्र प्लास्टिक सर्जरी ने भारत के ये चातुरीपूर्ण तरीके जानने के बाद एक नई उड़ान भरी ।’  अतः प्राचीन भारतीय चिकित्सा भारत सहित समस्त विश्व की एक विरासत है जिसका विकास व ज्ञान, चिकित्सा में आ रही नई वर्तमान चुनौतियों में सहयोगी हो सकता है। 

स्रोत

Yojna daily current affairs hindi med 17th April 2023

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