अग्रिम जमानत

अग्रिम जमानत

 

  • हाल ही में सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि, अग्रिम जमानत (Anticipatory Bail) दिए जाने के मामले में ‘अपराध की गंभीरता’ और ‘अपराध में आरोपी की भूमिका’ जैसे कारकों पर निचली अदालत द्वारा पर्याप्त रूप से विचार नहीं किए जाने का संकेत देने संबंधी पर्याप्त सामग्री होने पर, वरिष्ठ अदालत द्वारा ‘अग्रिम जमानत’ के आदेश को रद्द किया जा सकता है।

‘अग्रिम जमानत’ की अवधारणा:

  • वर्ष 1973 में दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) में संशोधन करने के दौरान, धारा 438 के तहत ‘अग्रिम जमानत’ (Anticipatory Bail) का प्रावधान लागू किया गया था।
  • गिरफ्तार होने के बाद किसी व्यक्ति को दी जाने वालीसाधारण जमानत के विपरीत, अग्रिम जमानत में, व्यक्ति को गिरफ्तारी से पहले ही जमानत पर रिहा करने का निर्देश दिया जाता है।

समय सीमा: 

  • सुशीला अग्रवाल बनाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (2020) मामले में सुप्रीम कोर्ट ने एक महत्वपूर्ण सुनाते हुए कहा, कि अग्रिम जमानत देते समय कोई समय सीमा निर्धारित नहीं की जा सकती है और यह, मामले की सुनवाई के अंत तक जारी रह सकती है।
  • ‘अग्रिम जमानत’ केवल सत्र न्यायालय और उच्च न्यायालय द्वारा प्रदान की जाती है।

महत्व:

  • एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक देश में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्वपूर्ण आधार को प्राप्त संसदीय स्वीकृति की वजह से, दंड प्रक्रिया संहिता में धारा 438 को अधिनियमित किया गया था।
  • संसद का उद्देश्य व्यक्तिगत स्वतंत्रता के महत्व को बढ़ावा देना था, और इसके साथ ही, यह आपराधिक न्यायशास्त्र के एक मौलिक सिद्धांत को प्राथमिकता प्रमुखता प्रदान करना चाहती थी, जिसमे कहा गया है, कि ‘जब तक कोई व्यक्ति दोषी साबित नहीं हो जाता, तब तक उसे निर्दोष माना जाताहै’।

सुप्रीम कोर्ट द्वारा हाल ही में की गई टिप्पणियां:

  • संविधान मेंअनुच्छेद 21 के तहत प्रत्याभूत ‘स्वतंत्रता के अधिकार’ के लिए दिए गए अधिमूल्य के मद्देनजर उच्च न्यायालय तथा उच्चत्तम न्यायालय के लिए, किसी आरोपी को ‘अग्रिम जमानत’ देने की शक्तियां दी गई हैं।
  • दंड प्रक्रिया संहिता (CrPC) के तहत किसी आवेदन को मंजूर करने अथवा रद्द करने का किसी व्यक्ति के जीवन और स्वतंत्रता के अधिकार पर सीधा प्रभाव पड़ता है। इसलिए, इस प्रावधान को उदारतापूर्वक पढ़ने और इसके लाभकारी स्वरूप पर विचार करने की आवश्यकता है। अदालतों के लिए, इन प्रतिबंधों को, विधायिका द्वारा बनाए गए क़ानून के स्पष्ट उद्देश्य को ध्यान में रखते हुए देखना चाहिए।
  • इस हेतु अदालत, संविधान केअनुच्छेद 142 के तहत प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करते हुए भी इस तरह के आदेश पारित कर सकती हैं।

इस प्रकार के संरक्षोपाय की आवश्यकता:

  • कोई अभियुक्त, सिर्फ एक आरोपी होने के अलावा, अपने परिवार का मुख्य देखभाल करने वाला या एकमात्र कमाने वाला भी हो सकता है। उसकी गिरफ्तारी से उसके प्रियजनों को भुखमरी और उपेक्षा का सामना करना पड़ सकता है।
  • वर्ष 1980 केगुरबख्श सिंह सिब्बिया बनाम पंजाब राज्य मामले में, तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश वाई वी चंद्रचूड़ के नेतृत्व में सुप्रीम कोर्ट की पांच-न्यायाधीशों की पीठ ने फैसला सुनाया था, कि धारा 438 (1) की व्याख्या संविधान के अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का संरक्षण) के आलोक में की जानी चाहिए है।
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