दल-बदल विरोधी कानून (Anti-Defection Law)

दल-बदल विरोधी कानून (Anti-Defection Law)

 

  • अभी 28 सितंबर को कन्हैया कुमार और गुजरात से निर्दलीय विधायक जिग्नेश मेवाणी ने कांग्रेस का हाथ थाम लिया। कन्हैया ने तो कांग्रेस की सदस्यता ले ली, लेकिन जिग्नेश ने कांग्रेस की औपचारिक सदस्यता नहीं ली।
  • इसके पीछे जिग्नेश ने तर्क दिया था कि वो कांग्रेस की विचारधारा के साथ हैं, लेकिन अभी अगर उन्होंने कांग्रेस की सदस्यता ग्रहण कर ली तो दल बदल विरोधी कानून के मुताबिक वे विधायक पद पर नहीं रह पाएंगे, क्योंकि वो निर्दलीय चुनकर आए हैं।

दल-बदल विरोधी कानून:

  • 52वें संविधान संशोधन के ज़रिए बना दल-बदल कानून 1 मार्च 1985 से देश में लागू हुआ था।
  • संविधान में इसे 10वीं अनुसूची के रूप में शामिल किया गया था।
  • ये क़ानून संसद और राज्य विधानसभा दोनों पर लागू होता है। इसके तहत यदि कोई विधायक अपनी पार्टी के खिलाफ जा कर दूसरी पार्टी का समर्थन करता है तो उसकी इस प्रक्रिया को दल-बदल माना जाता है। ऐसे में उस विधायक की सदस्यता समाप्त कर दी जाती है।

 किसी सांसद अथवा विधायक द्वारा राजनीतिक पार्टियों को बदलने के मामले में 3 कानूनी स्थितियां हैं:

  • पहली, जब किसी राजनीतिक दल के टिकट पर निर्वाचित सदस्य पार्टी की सदस्यता स्वेच्छा से छोड़ता है।
  • दूसरी, जब कोई शख्स निर्दलीय विधायक बनता है और बाद में किसी राजनीतिक पार्टी में शामिल हो जाता है। पहली और दूसरी कंडीशन में सांसद/विधायक की सदस्यता समाप्त हो जाती है।
  • तीसरी स्थिति मनोनीत सांसदों से संबंधित है। इसमें सांसदों अथवा विधायक के मनोनयन के बाद अगर वे 6 महीने के भीतर किसी राजनीतिक दल में शामिल होते हैं तो कोई बात नहीं, लेकिन इसके बाद अगर वे कोई राजनीतिक पार्टी ज्वाइन करते हैं तो उनकी सदस्यता समाप्त हो जाती है।
  • दल-बदल विरोधी कानून के तहत, किसी सांसद या विधायक की अयोग्यता के बारे में फैसला लेने का अधिकार विधायिका के पीठासीन अधिकारी के पास होता है।
  • कथित तौर पर तो पीठासीन अधिकारी निष्पक्ष हो कर फैसले लेता है, लेकिन अमूमन ऐसा होता नहीं है। सदन में चुना गया अध्यक्ष सत्ताधारी पार्टी से होता है, ऐसे में उसके फैसले की निष्पक्षता पर सवाल खड़े हो जाते हैं। साथ ही, इसमें समय को लेकर बहुत पाबंदी नहीं होता है।
  • विधायिका के पीठासीन अधिकारी कभी-कभी बहुत तेजी से काम काम करते हैं तो कई बार सालों तक मामला अटका रहता है। ऐसे में, इन अधिकारीयों पर राजनीतिक पूर्वाग्रह का भी आरोप लगता रहा है।
  • हालांकि पिछले साल, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि दलबदल विरोधी मामलों में स्पीकर द्वारा 3 महीने के अंदर फैसला लिया जाना चाहिए।
  • वहीं इससे अलग कुछ विशेषज्ञों का यह भी कहना है कि दल बदल विरोधी कानून के तहत सदस्यता समाप्ति से जुड़े फैसले स्पीकर को नहीं, बल्कि किसी स्वतंत्र एजेंसी मसलन चुनाव आयोग को दिया जाना चाहिए।

 

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